मिट्टी से जन्मी उम्मीदें (Hopes Born From The Soil)
आरव का जन्म एक बेहद गरीब परिवार में हुआ था। उसके पिता रामस्वरूप गाँव के एक साधारण किसान थे, जिनकी अपनी ज़मीन तो नाममात्र की थी — इतनी कि दो वक्त की रोटी भी मुश्किल से निकलती। वे दूसरों के खेतों में मज़दूरी करके परिवार का पेट पालते थे। मां धनवंती, एक घरेलू स्त्री, दिनभर घर संभालती, पशुओं की देखभाल करती और बच्चों को सिखाने की कोशिश करती कि ईमानदारी और मेहनत ही असली पूंजी है।
गाँव के हालात ऐसे थे कि बच्चे बचपन से ही बोझ उठाना सीख जाते थे — कभी पानी भरने जाना, कभी पशुओं के लिए चारा लाना, कभी बाज़ार से उधारी का सामान लाना। खेलने के लिए समय नहीं होता था, और अगर होता भी, तो खिलौने नहीं होते। आरव भी उसी मिट्टी का लड़का था, लेकिन उसमें कुछ अलग था — एक चमक, एक सवाल करने की आदत, और एक अजीब-सी जिज्ञासा कि “क्या मेरी ज़िंदगी ऐसे ही रहेगी?”
पांच साल की उम्र में जब आरव ने अपनी मां से पूछा —
“माँ, शहर में लोग क्या करते हैं?”
माँ ने मुस्कुराकर कहा, “शहर वाले बड़े लोग होते हैं बेटा, उनके पास सब कुछ होता है – रोशनी, गाड़ियाँ, पढ़ने के लिए बड़े स्कूल, और कमाने के लिए बड़े काम।”
यह बात आरव के दिल में घर कर गई। उसने उसी पल ठान लिया — “मैं बड़ा आदमी बनूंगा। ऐसा बड़ा कि लोग मेरे गाँव को जानें मेरे नाम से।”
बचपन की पहली सीख
आरव के घर में कभी कोई किताब नहीं थी, लेकिन माँ ने एक पुरानी “रामायण” किताब को बड़ी सहेजकर रखा था। वह टूटी हुई थी, पन्ने भी अधूरे थे, लेकिन वही आरव की पहली किताब बनी। उसकी मां हर रात उसे रामायण की कहानियाँ सुनाती थी – राम का वनवास, सीता की अग्निपरीक्षा, हनुमान की भक्ति।
इन कहानियों ने आरव को सिखाया कि जीवन में चाहे कितनी भी कठिनाइयाँ आएं, अगर इरादा सच्चा हो, तो कोई भी रावण हार सकता है।
गाँव के स्कूल में दाखिला हुआ, लेकिन वहाँ सुविधाओं की भारी कमी थी। लकड़ी की बेंचें, टूटी हुई छत, और गर्मियों में तपती ज़मीन पर बैठना — यही शिक्षा का माध्यम था। लेकिन आरव इन सब से परेशान नहीं होता था। वह हर सवाल का उत्तर जानना चाहता था। उसे जो चीज़ सबसे ज़्यादा आकर्षित करती थी, वो था — "कारण"।
एक बार मास्टर जी ने पूछा —
“पानी क्यों उबलता है?”
बाकी बच्चे चुप थे, लेकिन आरव ने तुरंत पूछा — “मास्टर जी, उबलने से पहले पानी अंदर ही अंदर गरम क्यों होता है?”
मास्टर जी मुस्कुरा दिए, उन्होंने पहली बार किसी बच्चे में ऐसी सोच देखी थी।
मिट्टी के खिलौने और सपने
आरव के पास खिलौने नहीं थे, लेकिन वो मिट्टी से खुद के खिलौने बनाता था — कभी कार, कभी मोबाइल, कभी घड़ी। वह अपने दोस्तों को कहता, “देखो, यह मेरी कंपनी की गाड़ी है। एक दिन असली में बनेगी।” बच्चे हँसते थे, लेकिन आरव हँसता नहीं था — उसकी आंखों में वो सपना था जो असल में आकार लेना चाहता था।
घर में एक छोटा सा रेडियो था, जो कभी-कभी काम करता था। उसमें जब शहर के बिज़नेस न्यूज़ आते, तो आरव ध्यान से सुनता — “टाटा ने नई कंपनी शुरू की”, “अंबानी का प्रोजेक्ट सफल हुआ”, “बिल गेट्स दुनिया का सबसे अमीर आदमी”। ये नाम उसके लिए सिर्फ शब्द नहीं थे, ये थे प्रेरणा के बीज।
जीवन की पहली चुनौती
एक बार खेत में काम करते वक्त आरव के पिता को ज़ोर का बुखार आया। इलाज के पैसे नहीं थे। मां ने अपने कंगन बेच दिए, तब जाकर गाँव के डॉक्टर से दवा मिली। यही वह दिन था जब आरव ने अपने आप से एक और वादा किया — “मैं अपने माँ-पापा को कभी भी पैसे की तंगी से नहीं गुजरने दूँगा। मैं इतना कमाऊंगा कि वे सिर्फ आराम करें।”
वो रातों को दीया जलाकर पढ़ता, और दिन में काम करता। कभी भैंस चराता, कभी गाँव की दुकान में चाय बेचता, और बदले में किताबें मांगता। उसकी मेहनत को देखकर गाँव वाले कहते, “ये लड़का एक दिन बड़ा नाम करेगा।”
माँ की सीख
धनवंती हमेशा आरव से कहती,
“बेटा, हालात चाहे जैसे हों, पर ईमान मत छोड़ना। मेहनत करने वाला कभी गरीब नहीं रहता, उसके पास दौलत नहीं सही, लेकिन इज्ज़त ज़रूर होती है। और इज्ज़त ही असली अमीरी है।”
आरव ये बात दिल में बसा लेता। उसे अपने हालात पर शर्म नहीं थी। उसे गर्व था कि वह उस मिट्टी से निकला है जहाँ संघर्ष ही जीवन का आधार है।
उम्मीदों की शुरुआत
जब आरव दसवीं कक्षा में पहुंचा, तो वह पूरे गाँव में पहला छात्र बना जिसने बोर्ड परीक्षा में 90% अंक लाए। पूरे गाँव में मिठाई बांटी गई। प्रधान जी ने कहा, “अब यह लड़का हमारे गाँव का नाम रोशन करेगा।”
आरव की आँखों में चमक थी। उसने अपने पिता का हाथ थामकर कहा,
“बाबा, अब मैं रुकूंगा नहीं। आप खेत में अकेले नहीं जाओगे। एक दिन मैं आपको कार में बैठाकर शहर घुमाऊंगा। और हमारा घर भी पक्का होगा।”
यह थी उस गरीब लड़के की कहानी की शुरुआत, जिसकी उम्मीदें मिट्टी में पनपी थीं — लेकिन आसमान को छूने का सपना लिए।
गरीबी की गोद में बचपन
धरमपुरा गाँव की मिट्टी में जन्मा आरव अब दस वर्ष का हो गया था। उम्र तो छोटी थी, लेकिन उसके कंधों पर ज़िम्मेदारियों का बोझ दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा था। स्कूल की पढ़ाई, घर का काम, खेतों में मदद, और साथ ही खुद के सपनों का बोझ — यह सब कुछ एक मासूम बालक की ज़िंदगी में बहुत जल्दी आ गया था। लेकिन आरव ने कभी शिकायत नहीं की, क्योंकि उसके पास एक बहुत बड़ा खज़ाना था — उसकी उम्मीदें।
पढ़ाई और पेट की लड़ाई
गाँव में दसवीं तक ही स्कूल था, और वहाँ भी पढ़ाई अधिकतर नाम मात्र की होती थी। मास्टर जी कई बार महीने भर की तनख्वाह न मिलने के कारण गायब हो जाते। ऐसे में आरव खुद ही पुरानी किताबों और अख़बारों से पढ़ाई करता। उसे समझ आ गया था कि अगर आगे बढ़ना है, तो खुद से सीखना होगा।
स्कूल से लौटते ही वह अपनी मां के साथ घर के कामों में जुट जाता — कभी लकड़ी इकट्ठा करना, कभी पशुओं को चारा डालना, कभी चूल्हे की आग जलाना। लेकिन रात को, जब सब सो जाते, तब वह अपना टूटा हुआ टॉर्च जलाकर पढ़ता था। बैटरी कभी खत्म हो जाती, तो वह दीया जला लेता। किताबें उसने स्कूल के पुराने बच्चों से मांगी थीं, और कुछ खुद गाँव के मंदिर से मांगकर इकट्ठा की थीं।
मां जब भी देखती कि आरव दीये की रोशनी में आँखें फाड़-फाड़कर किताब पढ़ रहा है, तो उसकी आंखों में आँसू आ जाते। लेकिन वह आँसू छिपाकर मुस्कुराती, और कहती —
“बेटा, तू एक दिन ज़रूर बहुत बड़ा आदमी बनेगा, और तुझे देखने लोग दूर-दूर से आएंगे।”
मेहनत की शुरुआत – चाय के गिलास और सपनों की छलक
ग्यारह साल की उम्र में आरव ने अपने पिता से जिद कर ली कि वह स्कूल के बाद काम करेगा। पिता ने मना किया, लेकिन आरव ने कहा —
“बाबा, घर चलाने में मेरी भी जिम्मेदारी है। आप इतने सालों से अकेले कर रहे हैं, अब मैं भी कुछ करूंगा।”
गाँव की बस स्टैंड पर एक चायवाले की दुकान थी। वहाँ आरव ने काम करना शुरू कर दिया — गिलास धोना, पानी भरना, बर्तन साफ करना, और ग्राहकों को चाय पकड़ाना। बदले में उसे महीने के सौ रुपये मिलते थे — जो उस वक्त उसके लिए बहुत बड़ी रकम थी।
जब उसके स्कूल के दोस्त उसे चाय बेचते देखते, तो कुछ हँसते, कुछ ताने मारते —
“देखो, अमीर बनने चला है, अब चाय पिलाएगा बड़े लोगों को!”
लेकिन आरव चुप रहता। उसे इन बातों से फर्क नहीं पड़ता था, क्योंकि वह जानता था कि उसकी असली लड़ाई उनके शब्दों से नहीं, अपनी गरीबी से है।
पहली कमाई, पहला आत्मविश्वास
पहली बार जब आरव ने अपनी मेहनत की कमाई से माँ के लिए एक नई चुनरी खरीदी, तो माँ की आंखें भर आईं। वह उस चुनरी को सिर पर रखकर बोली —
“आज तूने माँ को रानी बना दिया बेटा।”
उस दिन आरव को समझ में आया कि पैसे की असली कीमत क्या होती है — पैसे सिर्फ खर्चने के लिए नहीं होते, बल्कि किसी की खुशी और सम्मान का ज़रिया बन सकते हैं।
सपनों का अख़बार
चाय की दुकान के पास ही एक अख़बार वाला आता था। वह जो भी पुराने अख़बार फेंकता, आरव उन्हें इकट्ठा कर लेता और स्कूल से आकर पढ़ता। उसे सबसे ज्यादा आनंद बिज़नेस और विज्ञान पन्नों को पढ़ने में आता। वहाँ वह उन लोगों की कहानियाँ पढ़ता जो कभी उसके जैसे थे — गरीबी में जन्मे, लेकिन बाद में दुनिया के नक्शे पर अपनी जगह बनाई।
एक बार उसने एक लेख पढ़ा — धीरूभाई अंबानी का सफर। वह पढ़ते-पढ़ते सोचने लगा —
“अगर धीरूभाई पेट्रोल पंप पर काम करके रिलायंस बना सकते हैं, तो क्या मैं कुछ नहीं कर सकता?”
उसने अपने कमरे की दीवार पर एक कागज़ चिपका लिया जिसमें लिखा था —
“बड़ा सपना देखो, और फिर दिन-रात उसे सच करने में लग जाओ।”
संघर्ष का दूसरा नाम: भूख
आरव के लिए सबसे बड़ा संघर्ष भूख थी। कई बार ऐसा होता कि घर में सिर्फ एक बार ही खाना बनता। कभी खिचड़ी, कभी रोटियों के साथ सिर्फ नमक, तो कभी खाली पेट ही सो जाना। लेकिन माँ हमेशा यही कहती —
“तू पेट की भूख से हार गया तो ज़िंदगी की भूख कैसे जीतेगा?”
ये शब्द आरव को हिम्मत देते। उसने भूखे पेट भी पढ़ाई की, काम किया, और कभी हार नहीं मानी। वह अक्सर कहता —
“भूख ने मुझे मजबूत बनाया है, न कि कमजोर।”
खुद का स्कूल – पेड़ की छांव में ज्ञान
गाँव के कई बच्चों को पढ़ाई में रुचि नहीं थी, लेकिन आरव उनमें एक जुनून पैदा करना चाहता था। उसने अपने दोस्तों को बुलाकर एक नीम के पेड़ के नीचे “खुद का स्कूल” शुरू किया। वहाँ वह उन्हें वो सब पढ़ाता जो उसने अख़बारों और किताबों से सीखा था — विज्ञान की कहानियाँ, गणित के मजेदार खेल, और दुनिया के बड़े लोगों के प्रेरणादायक किस्से।
धीरे-धीरे गाँव के बड़े भी आने लगे और उसकी तारीफ करने लगे। लोग कहते —
“ये लड़का हमारे गाँव का भविष्य है।”
एक जोड़ी जूते का सपना
आरव के पास एक जोड़ी टूटी हुई चप्पल थी, जिससे उसका स्कूल जाना मुश्किल होता था। बरसात में वह कीचड़ में फिसलता, गर्मी में उसके पैर जलते, लेकिन उसने कभी छुट्टी नहीं ली। उसका सपना था — एक अच्छी कंपनी के जूते पहनकर स्कूल जाना।
उसने अपने चाय के काम से कुछ पैसे बचाए और कई महीनों बाद जब वह पहली बार शहर जाकर जूते खरीदकर लाया, तो ऐसा लग रहा था जैसे उसने दुनिया जीत ली हो।
जूतों की डिब्बी खोलते हुए उसने खुद से कहा —
“अगर एक दिन मैं खुद की जूतों की कंपनी बनाऊं, तो उसका नाम ‘मिट्टी फुटवियर’ रखूंगा — ताकि हर गरीब बच्चा बिना तकलीफ के स्कूल जा सके।”
एक बच्चे की रीढ़
आरव ने गरीबी को केवल सहन नहीं किया, उसने उसे अपनी ताकत बना लिया। भूख, ताने, तंगी — ये सब उसकी आँखों में आंसू नहीं लाए, बल्कि उसकी आत्मा में आग भर दी।
उसका हर दिन संघर्ष से भरा था, लेकिन हर रात वह सपना लेकर सोता था — “एक दिन मैं भी बड़ा आदमी बनूंगा, और मेरी कहानी भी किसी अख़बार में छपेगी।”
एक साइकिल
हर सुबह जब आरव स्कूल जाता, तो गाँव की पगडंडियों पर वह नंगे पाँव या टूटी-फूटी चप्पलों में चलता था। कई बार बारिश में कपड़े भीग जाते, कीचड़ में पैर धँसते, और फिर स्कूल की क्लास में बैठते समय पूरा शरीर थकान से बोझिल हो जाता। लेकिन उसकी नज़रें स्कूल के बाहर खड़ी उन साइकिलों पर होतीं जो गाँव के कुछ संपन्न परिवारों के बच्चे चलाकर लाते थे।
वे हँसते, तेज़ी से स्कूल पहुँचते, और जल्दी घर भी चले जाते। एक दिन आरव ने एक साइकिल पर हाथ फिराते हुए सोचा —
"काश! मेरे पास भी एक साइकिल होती। मैं भी उड़ता हुआ स्कूल जाता, माँ की मदद करता, और दुकान पर भी समय पर पहुँचता।"
सपना सिर्फ देखना नहीं, उसे पाना भी है
आरव ने पहली बार अपने जीवन में कोई "संपत्ति" चाही थी — एक साइकिल। लेकिन वह जानता था कि यह सपना आसान नहीं था। एक नई साइकिल की कीमत थी लगभग 1500 रुपये — जो उसके पिता की तीन महीने की कमाई के बराबर थी।
आरव को मालूम था कि वह अपने पिता से इस बारे में नहीं कह सकता। माँ तो उसके हर सपने के लिए जान देने को तैयार थी, लेकिन वह खुद माँ की आँखों में कोई और चिंता नहीं लाना चाहता था।
उस रात उसने माँ से कहा —
“माँ, मैं एक सपना देख रहा हूँ — एक साइकिल का। क्या मैं अपने दम पर पैसे जोड़ सकता हूँ?”
माँ ने उसका माथा चूमा और कहा —
“सपने वही होते हैं बेटा, जो नींद से नहीं, मेहनत से पूरे होते हैं।”
कमाने का नया सफर – अख़बार वाला आरव
चाय की दुकान के साथ-साथ अब आरव ने सुबह-सुबह अख़बार बाँटने का भी काम शुरू किया। वह सुबह 4 बजे उठता, गाँव के कस्बे से अख़बार की गड्डी उठाता, और गाँव के 25-30 घरों में दौड़-दौड़कर अख़बार डालता। गर्मियों में यह काम आसान था, लेकिन सर्दियों में जब धुंध छाई होती, ठंडी हवा से उंगलियाँ सुन्न हो जातीं — तब भी वह रुकता नहीं था।
उसकी कमाई अब लगभग 200 रुपये महीना हो गई थी। वह हर दिन 10 रुपये माँ को देता, और बाकी पैसे एक पुराने टिफिन डिब्बे में छुपाकर जमा करता। जब भी वह पैसे गिनता, उसकी आँखों में चमक आ जाती।
सपना धीरे-धीरे साकार होता जा रहा था।
ताने, लेकिन हौसला नहीं टूटा
गाँव के कुछ लड़के अक्सर आरव का मज़ाक उड़ाते थे —
“देखो साइकिल वाला बनने चला है अख़बार बेच-बेचकर!”
“अरे रे, बड़ा आदमी बनकर आएगा ये अख़बार वाला!”
लेकिन आरव अब चुप नहीं रहता था। वह मुस्कुराकर जवाब देता —
“कल जब मेरी कंपनी का नाम अख़बार में आएगा, तो वही अख़बार मैं खुद बाँटूंगा — ताकि सबको पढ़ने को मिले।”
माँ की आँखों में गर्व
जब आरव ने पहली बार माँ को अपनी जमा की गई रकम दिखाई — 1140 रुपये — तो माँ की आँखें छलक आईं। वह कुछ देर तक चुप रही, फिर बोली —
“आज तूने साबित कर दिया बेटा, कि सपना केवल अमीरों का हक़ नहीं होता।”
पिता ने भी पहली बार पीठ थपथपाई और गाँव के साइकल स्टोर के मालिक से बात करके कुछ छूट में साइकिल दिलवाई।
जब आरव अपनी पहली साइकिल लेकर घर लौटा, तो पूरे गाँव में जैसे उत्सव सा माहौल था। छोटे बच्चे उसके पीछे दौड़ते, बूढ़े आशीर्वाद देते, और माँ गंगा जल छिड़ककर साइकिल को भगवान की तरह पूजती।
पहला दिन – पहली उड़ान
साइकिल पर बैठकर स्कूल जाना आरव के लिए किसी हवाई जहाज उड़ाने से कम नहीं था। वह हवा से बातें करता, खेतों की खुशबू महसूस करता, और मन ही मन कहता —
“अब मेरी रफ्तार को कोई नहीं रोक सकता।”
उस दिन से आरव सिर्फ समय पर स्कूल नहीं पहुँचता था, बल्कि स्कूल से आने के बाद वह माँ के लिए बाजार से सामान भी लाता, पिताजी के लिए खेतों तक खाना भी ले जाता, और चाय की दुकान पर जल्दी पहुँचकर अपना काम भी करता।
जिम्मेदारी से आत्मनिर्भरता तक
अब आरव के पास एक साधन था, लेकिन उसने इसे सिर्फ सुविधा के लिए नहीं रखा। वह आसपास के गाँवों में जाकर बच्चों को पढ़ाने भी लगा। नीम के पेड़ के नीचे उसका स्कूल अब “घुमंतू कक्षा” बन चुका था।
साइकिल पर बैठकर वह आसपास के गाँवों में जाता और बच्चों को प्रेरणा देता —
“सपने देखो, लेकिन उठो और उन्हें पाने की ठान लो।”
उसकी यह लगन देख गाँव के प्रधान जी ने भी स्कूल के लिए कुछ किताबें और ब्लैकबोर्ड भिजवाया। धीरे-धीरे उसका नाम आसपास के गाँवों में भी फैलने लगा।
एक सपना, जो दिशा बदल गया
एक दिन आरव शहर गया था कुछ किताबें लेने। वहाँ एक बड़ी साइकिल शोरूम की खिड़की पर उसे एक लाइन लिखी दिखी —
“सपने पहिए पर चलते हैं – बस धक्का देने वाला चाहिए।”
उसने उसी वक्त ठान लिया —
"मैं एक दिन ऐसी कंपनी बनाऊंगा जो उन बच्चों को साइकिल देगी, जिनके सपने रास्ते में थककर रुक जाते हैं।"
पहिए जो ज़िंदगी बदलते हैं
आरव के लिए वह साइकिल एक साधन नहीं थी, वह उसका पहला "व्यक्तिगत सपना" था जो उसकी मेहनत से साकार हुआ था। यह वही क्षण था जिसने आरव के अंदर आत्मनिर्भरता की लौ जलाई। उसने जाना कि जब आप अपने पहले सपने को खुद पूरा करते हैं, तो जीवन में कोई सपना बड़ा नहीं रह जाता।
अब आरव को खुद पर विश्वास था। उसकी रफ्तार बढ़ गई थी, और अब उसका अगला लक्ष्य था — शहर की ओर बढ़ना, और बड़ा सपना देखना।
शहर की ओर पहला कदम
साइकिल के पहियों पर आरव ने न सिर्फ गाँव की गलियों में रफ्तार पकड़ी थी, बल्कि अब उसके सपनों ने भी ऊँचाई छूनी शुरू कर दी थी। पढ़ाई में अव्वल, काम में निपुण, और व्यवहार में सौम्य — इन गुणों ने धीरे-धीरे उसे गाँव में अलग पहचान दिलाई। लेकिन वह जानता था कि अगर उसे अपने जीवन का असली परिवर्तन लाना है, तो अब वह गाँव की सीमाओं से बाहर निकले।
आरव के मन में अब एक ही लक्ष्य था — शहर जाना, और उच्च शिक्षा प्राप्त करना।
बोर्ड परीक्षा – गाँव का पहला सितारा
दसवीं की बोर्ड परीक्षा आरव के लिए सिर्फ एक परीक्षा नहीं थी, वह उसका भविष्य थी। सर्दियों की कड़कड़ाती रातों में, गर्मियों की झुलसती दोपहरों में और कभी भूखे पेट, कभी जलते दीयों के नीचे वह लगातार पढ़ाई करता रहा।
जब परिणाम आया, तो पूरे गाँव में शोर मच गया —
“आरव ने 91% अंक लाकर पूरे ज़िले में टॉप किया है!”
गाँव के लोग मिठाई लेकर आए। प्रधान जी ने मंच से सम्मानित किया। लेकिन सबसे बड़ा इनाम था पिता की आँखों की नमी और माँ की मुस्कान।
पिता ने धीरे से कहा —
“बेटा, अब तू तैयार है, उड़ने के लिए।”
शहर की ओर पहला सफर
राजधानी जयपुर में एक नामी कॉलेज ने आरव को स्कॉलरशिप देने की घोषणा की थी। लेकिन वहाँ तक पहुँचना आसान नहीं था — एडमिशन फॉर्म, सफर का खर्च, रहने की व्यवस्था — ये सब एक गरीब किसान के बेटे के लिए किसी पहाड़ से कम नहीं था।
मगर गाँव वालों ने मदद की। किसी ने रेल टिकट कटवाया, किसी ने खाने का डब्बा बाँधा, और किसी ने अपनी पहचान से हॉस्टल में जगह दिलवाई। पूरे गाँव ने जैसे अपने बेटे को शहर भेजा हो।
जब आरव पहली बार ट्रेन में बैठा, तो माँ ने पोटली में हलवा और एक चिट्ठी रखी। उसमें लिखा था —
“बेटा, खुद को कभी अकेला मत समझना। तेरा हौसला ही तेरा परिवार है।”
शहर की भीड़ में अकेलापन
जयपुर की चकाचौंध, भीड़, ऊँची इमारतें — यह सब आरव के लिए एक नई दुनिया थी। पहली बार उसने मोबाइल, एटीएम, मेट्रो, एस्केलेटर और अंग्रेज़ी बोलते हुए बच्चे देखे थे।
कक्षा में बैठे हुए उसे लगने लगा था कि वह पीछे रह गया है। बाकी बच्चे कॉन्वेंट स्कूलों से आए थे, धाराप्रवाह अंग्रेज़ी बोलते थे, लैपटॉप पर नोट्स बनाते थे। और आरव? उसके पास तो अब भी एक पुरानी डायरी और पेंसिल ही थी।
लेकिन उसने हार नहीं मानी।
उसने तय किया कि वह हर दिन नया सीखेगा — चाहे कितनी भी देर लगे।
चाय से कोचिंग – आत्मनिर्भरता की फिर से शुरुआत
कॉलेज की फीस तो स्कॉलरशिप से हो गई थी, लेकिन रहने-खाने और किताबों का खर्च अब भी उसके सिर पर था। इसलिए उसने अपने पुराने अनुभव को ज़िंदा किया — एक कोचिंग संस्थान के बाहर चाय पहुँचाने का काम पकड़ लिया।
सुबह 5 बजे उठकर चाय बनाना, फिर कोचिंग सेंटर तक साइकिल से पहुँचाना, और फिर कॉलेज जाना — यही उसकी दिनचर्या बन गई थी। कोचिंग सेंटर में आने-जाने के दौरान वह अक्सर खिड़की के बाहर से टीचर्स को पढ़ाते देखता, और चुपचाप नोट्स सुनता।
एक मौके ने बदली किस्मत
एक दिन कोचिंग के मालिक ने देखा कि आरव खिड़की से लगातार ध्यान से देखता है। उन्होंने बुलाकर पूछा —
“तू यहाँ सिर्फ चाय देने आता है या कुछ और भी चाहता है?”
आरव ने संकोच से कहा —
“सर, मैं पढ़ना चाहता हूँ। IIT का सपना है। लेकिन फीस नहीं है।”
कोचिंग संचालक मुस्कुराए और बोले —
“तू अब हमारे यहाँ पढ़ेगा, मुफ्त में। और बदले में हमें तुझसे एक वादा चाहिए — तू जब बड़ा बने, किसी और आरव को पढ़ाएगा।”
आरव की आँखों में आंसू आ गए। उसे पहली बार शहर ने अपनाया था।
शहर का संघर्ष – नींद से भी लंबी रातें
अब आरव की ज़िंदगी पूरी तरह बदल गई थी — दिन में कॉलेज, शाम को कोचिंग, रात को ट्यूशन पढ़ाकर खर्च निकालना, और फिर रात 2 बजे तक खुद पढ़ाई।
बिजली का बिल न बढ़े, इसलिए वह सरकारी पार्क की लाइट के नीचे पढ़ता। वहीं एक बेंच पर सो जाता, और सुबह फिर उसी दिनचर्या में लग जाता।
लेकिन अब उसका आत्मविश्वास पहले से कहीं ज़्यादा मजबूत था। उसे मालूम था कि जो लड़का मिट्टी से निकला है, वह शहर की धूल से नहीं डरता।
पहला कंप्यूटर – एक और सपना साकार
कॉलेज में प्रोजेक्ट्स के लिए कंप्यूटर ज़रूरी था, लेकिन आरव के पास पैसे नहीं थे। इसलिए उसने कॉलेज के एक पुराने कंप्यूटर को मरम्मत करवा कर खरीदा — मात्र 800 रुपये में।
रात-रात भर वह इंटरनेट से बिज़नेस मॉडल्स, स्टार्टअप्स, ऑनलाइन मार्केटिंग, डिजिटल इंडिया और स्वदेशी उद्यमों के बारे में पढ़ता। यहीं से उसके दिमाग में पहली बार एक बिज़नेस आइडिया ने जन्म लिया —
“क्यों न गाँव के हुनर को ऑनलाइन बेचा जाए? क्यों न गाँव के कारीगर, बुनकर, मूर्तिकार, बढ़ई और छोटे किसान शहरों से सीधे जुड़ सकें?”
नया सफर, नई सोच
अब आरव सिर्फ सपनों का पीछा नहीं कर रहा था — वह अपने सपनों के लिए रास्ता बना रहा था। शहर ने उसे डराया, गिराया, रुलाया — लेकिन हर बार वह और मज़बूती से उठा।
उसके पास अब साइकिल थी, एक पुराना कंप्यूटर था, दो जोड़ी कपड़े थे, एक थाली और गिलास था — और सबसे बड़ी चीज़: एक स्पष्ट दिशा।
वह जान चुका था कि अब उसे रुकना नहीं है। उसे अब एक स्टार्टअप बनाना है — ऐसा स्टार्टअप जो न सिर्फ उसे सफल बनाए, बल्कि उसके जैसे लाखों आरवों के लिए रोशनी की किरण बने।
इंजीनियरिंग का सपना
आरव के जीवन में अब तक संघर्ष उसकी पहचान बन चुका था। लेकिन इस बार वह केवल ज़िंदगी की ज़रूरतों को पूरा नहीं कर रहा था, अब वह कुछ बड़ा गढ़ने की तैयारी में था। उसके भीतर एक नई ऊर्जा थी, एक नई दिशा — IIT में प्रवेश और एक इंजीनियर बनने का सपना।
यह सपना उसने न किसी के कहने पर देखा था, न समाज की रेस में भागने के लिए — यह सपना उस गांव की बिजली रहित रातों में पढ़ते समय पैदा हुआ था, जब वह सोचता था:
"अगर मैं इंजीनियर बनूं, तो क्यों न अपने जैसे गाँवों के लिए कुछ बनाऊं जो उनकी ज़िंदगी बदल दे?"
कोचिंग का कठिन रास्ता
अब आरव एक स्थानीय कोचिंग सेंटर में पढ़ रहा था, जहाँ उसकी फीस माफ़ थी। लेकिन पढ़ाई आसान नहीं थी — चारों ओर प्रतिभावान छात्र, इंग्लिश मीडियम की किताबें, हाई-टेक नोट्स, महंगे स्मार्टफोन, और लैपटॉप के बीच आरव अब भी पेंसिल और कॉपी लेकर बैठा रहता था।
रोज़ रात को वह कोचिंग से लौटने के बाद अपनी नोटबुक में दिन भर की क्लास के पॉइंट्स को दोहराता, समझता और खुद से ही सवाल करता।
उसका कहना था —
"अगर मेरे पास संसाधन नहीं हैं, तो कोई बात नहीं — पर मेरी लगन और मेहनत किसी से कम नहीं होगी।"
किताबों से रिश्ता – और गहराता गया
आरव ने अब अपनी पूरी ज़िंदगी को तीन हिस्सों में बांट दिया था:
-
सुबह 5 से 9 – अखबार बांटना और चाय की टपरी पर मदद
-
9 से 4 – कॉलेज की क्लास और लाइब्रेरी में पढ़ाई
-
4 से रात 10 – कोचिंग क्लास और घर लौटकर सेल्फ-स्टडी
रात 10 के बाद, जब पूरा हॉस्टल सो जाता, तब आरव अपनी डायरी खोलता, उसमें दिन की सीख लिखता और रोज़ एक नया सपना नोट करता।
वह अकसर सोचता था —
"मैं इंजीनियर बनूंगा, लेकिन मशीनें नहीं, समाधान बनाऊंगा – उन लोगों के लिए जिनके पास कोई समाधान नहीं है।"
पहली बार इंटरनेट से दोस्ती
कॉलेज में एक कंप्यूटर लैब थी, जहाँ आरव ने पहली बार इंटरनेट पर यूट्यूब, Quora, और NPTEL जैसे प्लेटफॉर्म्स पर वीडियो लेक्चर देखने शुरू किए।
वह MIT, Stanford, और IIT के प्रोफेसरों के फ्री लेक्चर डाउनलोड करता और गांव के बच्चों की तरह खुद से सीखने लगता। उसने बहुत जल्द खुद ही 11वीं और 12वीं का पूरा फिज़िक्स और मैथ्स कवर कर लिया।
आईआईटी प्रवेश परीक्षा – धड़कनों की रेस
जैसे-जैसे परीक्षा की तारीख पास आती गई, आरव की दिनचर्या और कठोर होती गई। अब वह हर दिन 14-16 घंटे पढ़ाई करता। उसने अपने फोन से सोशल मीडिया ऐप्स हटा दिए, खाने-पीने में सादा भोजन अपनाया, और दोस्तों से मिलना बंद कर दिया।
वह सिर्फ एक ही लक्ष्य पर केंद्रित था — IIT-JEE।
परीक्षा का दिन आया। आरव ने सुबह उठकर माँ की चिट्ठी पढ़ी, जिसमें लिखा था —
"तू अगर हार भी जाए, तो समझना तूने कोशिश नहीं छोड़ी। और कोशिश करने वाला कभी हारता नहीं।"
आरव ने शांत मन से परीक्षा दी। पेपर कठिन था, लेकिन उसने आत्मविश्वास नहीं खोया।
परिणाम – गाँव की नई सुबह
तीन महीने बाद परिणाम आया। आरव का चयन हो गया था — IIT-BHU में इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में।
पूरे गाँव में जैसे दीपावली का माहौल था। चूल्हों पर हलवा बना, मंदिर में घंटियाँ बजीं, और गाँव के स्कूल के बच्चों को आरव की कहानी सुनाई गई।
पिता ने आँखों में आँसू लिए कहा —
"बेटा, आज तूने हमारा सिर ऊँचा कर दिया। हम भले तुझे किताब नहीं दे पाए, लेकिन तूने हमें किताब बना दिया – संघर्ष की किताब।"
आईआईटी में कदम – सपनों की नई दुनिया
IIT में दाख़िला पाना आरव के लिए एक सपना था, लेकिन जब वह वहाँ पहुँचा, तो एक नई सच्चाई सामने आई —
वहाँ के छात्र बड़ी-बड़ी कंपनियों के बच्चों थे, उनके पास मैकबुक, टैबलेट, स्मार्ट गैजेट्स, फास्ट इंटरनेट और सब कुछ था।
वहीं आरव अब भी उसी पुराने कंप्यूटर और सस्ते फोन के साथ था। लेकिन अब तक उसकी आत्मा फौलाद बन चुकी थी। उसने तय कर लिया था कि वह यहां भी पीछे नहीं रहेगा।
“मिट्टी की बिजली” – पहला स्टार्टअप आइडिया
IIT के पहले सेमेस्टर में ही एक प्रोजेक्ट मिला — “रूरल इनोवेशन”। आरव ने उसी पल अपने बचपन की वह रात याद की, जब बिजली न होने के कारण वह दीया जलाकर पढ़ता था।
उसने एक छोटा-सा सोलर लैंप डिज़ाइन किया —
-
सस्ता
-
टिकाऊ
-
ग्रामीण बच्चों के लिए विशेष रूप से तैयार
उसका नाम रखा — “दीपशक्ति”
वह इसे लेकर अपने गाँव गया, और 50 बच्चों को मुफ्त में बांटा। बच्चों की आंखों की चमक देखकर वह समझ गया — यही है मेरा रास्ता।
सपना अब योजना बन चुका था
अब आरव एक इंजीनियर नहीं, एक विचारक बन चुका था। उसकी सोच में अब सिर्फ सफलता नहीं, समाज के लिए कुछ करने का जुनून था।
उसने तय किया कि वह अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद एक ऐसा स्टार्टअप बनाएगा जो भारत के लाखों गांवों तक रोशनी, शिक्षा और आत्मनिर्भरता पहुंचाएगा।
अब आरव का अगला सपना था —
“दीपशक्ति” को एक वास्तविक बिज़नेस में बदलना, और अपने जैसे हजारों युवाओं को साथ लेकर चलना।
असफलता की पहली चुभन
IIT में दाख़िले के बाद आरव को ऐसा लगने लगा था कि अब उसके संघर्षों का दौर समाप्त हो गया है। चारों ओर वह चमक-धमक थी, जिसे देखकर वह बचपन से प्रेरित होता रहा था — बड़ी-बड़ी कंपनियों के सेमिनार, नवाचारों की चर्चाएँ, छात्र स्टार्टअप्स और प्लेसमेंट की तैयारियाँ।
लेकिन इसी बीच वह एक भूल कर बैठा — उसने अपने पहले स्टार्टअप “दीपशक्ति” को जल्दबाज़ी में बाज़ार में उतारने का फैसला कर लिया।
उसे लगने लगा था कि उसका उत्पाद इतना प्रभावशाली है कि वह खुद-ब-खुद सफल हो जाएगा। लेकिन सफलता का रास्ता कभी सीधा नहीं होता।
पहले निवेश की तलाश – आत्मविश्वास बनाम अनुभव
आरव ने कॉलेज के कुछ प्रोफेसरों से “दीपशक्ति” के लिए फंडिंग की बात की। एक-दो प्रेजेंटेशन में उसे तारीफ़ तो मिली, लेकिन कोई ठोस निवेश नहीं आया।
तब उसने एक लोकल एंजल इन्वेस्टर से संपर्क किया, जिसने शर्त रखी:
“20,000 रुपये लगाऊंगा, लेकिन प्रोटोटाइप और मार्केट टेस्टिंग तुम्हें खुद करनी होगी। और मुनाफा आने तक कोई वेतन नहीं मिलेगा।”
आरव ने यह शर्त मान ली। उसे विश्वास था कि दीपशक्ति सफल होगा — और जल्द ही।
प्रोडक्शन की शुरुआत – बिना तैयारी, सिर्फ जुनून
आरव ने अपने कुछ दोस्तों की मदद से एक छोटे कमरे में दीपशक्ति के 200 यूनिट तैयार कर लिए। बैटरी, सोलर पैनल, LED लाइट्स — सब सस्ते स्रोतों से खरीदे। उसे यकीन था कि उसकी ईमानदारी और उद्देश्य ही उसे सफल बनाएँगे।
पहले बैच को उसने अपने गाँव और पास के तीन गांवों में मुफ्त वितरित किया, और कुछ दुकानदारों को बेचना शुरू किया।
लेकिन वह एक बड़ी गलती कर बैठा था — उसे सप्लाई चेन, ग्राहक सेवा और तकनीकी गुणवत्ता का कोई व्यावसायिक अनुभव नहीं था।
शिकायतें, टूटे हुए लैंप और टूटती उम्मीदें
मात्र दो सप्ताह बाद शिकायतें आने लगीं —
-
“लैंप एक ही दिन में बंद हो गया।”
-
“बैटरी चार्ज नहीं हो रही।”
-
“लाइट की रोशनी बहुत कम है।”
ग्राहक नाराज़ हुए। दुकानदारों ने उसे वापस बुला लिया। गाँव में जिन लोगों ने उम्मीद से उसके उत्पाद को अपनाया था, उन्होंने अब उसे निराशा की नज़रों से देखना शुरू किया।
एक दिन एक किसान ने कहा —
“बेटा, तुझसे बहुत उम्मीद थी, लेकिन ये सामान तो शहर की नकली कंपनी से भी खराब निकला।”
आरव उस रात रोया। पहली बार उसने खुद को पूरी तरह असहाय महसूस किया। उसने अपने दोस्तों से कहा —
“शायद मैं बिज़नेस के लायक नहीं हूं। शायद मैं सिर्फ सपने देखने में अच्छा हूं, उन्हें पूरा करने में नहीं।”
कर्ज़ और रिश्तों में दरार
इन असफल प्रोडक्ट्स पर उसने जितने पैसे लगाए थे, वे सब डूब चुके थे। ऊपर से इन्वेस्टर ने भी अपनी हिस्सेदारी वापस मांगनी शुरू कर दी।
अब उसके पास न पैसा था, न आत्मविश्वास। कोचिंग के दोस्त, जो पहले उसकी तारीफ़ करते नहीं थकते थे, अब कटाक्ष करने लगे —
“इंजीनियरिंग छोड़ बिज़नेस करना था क्या ज़रूरी था?”
“IIT में आकर भी गाँव वाला दिमाग नहीं गया तेरा।”
आरव अब एक बार फिर उसी मोड़ पर खड़ा था — जहाँ वह अपने बचपन में अक्सर खड़ा होता था, लेकिन इस बार ज्यादा अकेला था। शहर की चमक अब उसे चुभने लगी थी।
माँ की चिट्ठी – हार में छिपी सीख
उसी हताशा के दौर में उसे माँ की एक चिट्ठी मिली। लिखा था:
“बेटा, मैंने सुना तेरा पहला प्रयास सफल नहीं हुआ। लेकिन क्या तूने चलना छोड़ दिया? नहीं ना।
जिसने चलना नहीं छोड़ा, वही दौड़ना भी सीखेगा।
गिरा है? अच्छा है। अब खड़े होकर और मज़बूती से चल।
सपना तेरा है — तो ज़िम्मेदारी भी तेरी है।”
उस रात आरव ने खुद को फिर से समेटा।
गलती की पहचान – अनुभव की किताब से पहला पन्ना
आरव ने बैठकर पूरे प्रोजेक्ट का विश्लेषण किया:
-
उसने प्रोटोटाइप की टेस्टिंग नहीं की
-
तकनीकी फीडबैक को नजरअंदाज़ किया
-
ग्राहक सेवा को कोई तवज्जो नहीं दी
-
और सबसे बड़ा — जल्दबाज़ी में बाज़ार में कूद पड़ा
लेकिन इन सब गलतियों के साथ ही उसने एक चीज़ पाई थी — तजुर्बा।
वह जान गया था कि आइडिया केवल शुरुआत है, असली लड़ाई उसे आकार देने, सुधारने और लोगों के भरोसे पर खरा उतरने की होती है।
सीख का नया चरण – असफलता को शिक्षक बनाना
आरव ने अब एक नया संकल्प लिया —
“जब तक मैं खुद बाज़ार और तकनीक की भाषा नहीं सीख लेता, तब तक कोई अगला कदम नहीं उठाऊंगा।”
वह इंजीनियरिंग के साथ-साथ अब बिज़नेस मैनेजमेंट, मार्केटिंग, यूज़र रिसर्च और डाटा एनालिसिस पढ़ने लगा। इंटरनेट पर मुफ्त कोर्स, टेड टॉक्स, इंटरव्यू — सब कुछ उसने दिन-रात खंगालना शुरू किया।
उसने अपनी टूटी हुई दीपशक्ति लाइट को टेबल पर रखकर लिखा —
"तेरे साथ मैं गिरा था, तेरे साथ ही उठूंगा भी।"
हार नहीं, तैयारी है
आरव के जीवन की यह पहली असफलता वास्तव में उसका पुनर्जन्म थी। जहाँ पहले वह सिर्फ जोश में था, अब उसमें होश और दिशा भी जुड़ चुकी थी।
अब वह जानता था कि आइडिया को ब्रांड बनाना है तो जड़ से लेकर शिखर तक खुद को निखारना होगा। और अब वह उस अगली छलांग के लिए खुद को तैयार कर रहा था — जो उसे सिर्फ सफल नहीं, बल्कि प्रेरणा भी बनाएगी।
दूसरा प्रयास – ज़िद का दूसरा नाम
असफलता ने आरव को तोड़ने की बजाय तराश दिया था। अब उसमें पहले से कहीं ज़्यादा ठहराव था, सोच में गहराई थी, और हर कदम पर संयम। दीपशक्ति की विफलता ने उसे यह सिखा दिया था कि कोई भी बड़ा काम करने के लिए केवल इरादा ही नहीं, बल्कि तैयारी, परीक्षण और तजुर्बा भी उतना ही ज़रूरी होता है।
अब उसने तय किया — वो फिर से शुरू करेगा, लेकिन इस बार पूरी योजना, रिसर्च और सोच-समझ के साथ।
खुद से वादा
एक रात आरव ने अपने हॉस्टल की छत पर खड़े होकर खुद से वादा किया —
“अब मैं सिर्फ सपने नहीं देखूंगा, अब मैं उन्हें जीने लायक बनाऊंगा। मेरी सफलता की परिभाषा ये नहीं होगी कि मैंने कितना कमाया, बल्कि ये होगी कि मैंने कितनों की ज़िंदगी को रोशन किया।”
वो रात ज़िंदगी का नया मोड़ थी। वही आरव जो कभी सिर्फ खुद के लिए साइकिल चाहता था, अब एक ऐसी दुनिया बनाना चाहता था जहाँ हर गरीब बच्चा सपने देख सके — और उन्हें साकार भी कर सके।
सीख से संकल्प तक
अब आरव ने पहला कदम उठाया —
“ग्राउंड रिसर्च”।
IIT की गर्मी की छुट्टियों में उसने अपने गाँव और आसपास के 12 गाँवों का दौरा किया। हर जगह लोगों से मिला, उनसे सीधा सवाल किया:
-
“आपको रात में रोशनी की सबसे ज़्यादा ज़रूरत किस समय होती है?”
-
“आप सोलर लाइट पर कितना खर्च करने को तैयार हैं?”
-
“आपके बच्चे कैसे पढ़ते हैं?”
-
“आपको भरोसा कैसे होगा कि ये टिकेगी?”
इन सवालों के जवाबों ने उसकी आँखें खोल दीं। उसे समझ आ गया कि ज़मीनी जरूरतें और एक स्टूडेंट का इनोवेशन अक्सर एक-दूसरे से बहुत अलग होते हैं।
नया प्रोटोटाइप – “दीपशक्ति 2.0”
अब आरव ने नया मॉडल बनाया:
-
प्लास्टिक के बजाय लोहे का कवर
-
चार्जिंग इंडिकेटर
-
7 घंटे की बैटरी बैकअप
-
और सबसे अहम — ग्राहक के मुताबिक दोपहर में चार्ज और रात को फुल ब्राइटनेस
उसने इस बार IIT के इलेक्ट्रिकल लैब में घंटों बिताकर सर्किट तैयार किया, और प्रोफेसर की मदद से टेस्टिंग करवाई। फिर 25 यूनिट बनाकर वो दोबारा गाँव पहुंचा।
इस बार कोई प्रचार नहीं किया। सिर्फ चुपचाप 5 परिवारों को दिए —
"इसे चलाइए। जब लगे कि ये काम कर रही है, तभी भुगतान करिए।"
दो महीने बाद सभी 5 परिवारों ने पैसे दिए — और साथ में 15 और यूनिट की मांग भी।
बिज़नेस नहीं, आंदोलन
आरव ने अब “दीपशक्ति” को एक ब्रांड नहीं, बल्कि आंदोलन बनाने की ठानी। उसने इसका उद्देश्य बनाया:
“हर गाँव में हर बच्चा रोशनी में पढ़े — यह हमारा हक़ है, कृपा नहीं।”
IIT में लौटकर उसने कुछ और दोस्तों को साथ जोड़ा — कोई ऐप बनाना जानता था, कोई डिलीवरी नेटवर्क बना सकता था, कोई सोशल मीडिया पर प्रचार कर सकता था। टीम बन गई — 6 जुनूनी युवा, और एक ज़िद: दीपशक्ति को गाँव-गाँव पहुँचाना है।
पहला ऑर्डर – एक शिक्षक से प्रेरणा
एक दिन एक सरकारी शिक्षक ने, जिसने अपने गाँव में आरव की लाइट देखी थी, आरव को फोन किया —
“तुम्हारी दीपशक्ति से हमारे स्कूल के बच्चे अब शाम को भी पढ़ते हैं। क्या तुम हमें 50 यूनिट दे सकते हो?”
आरव ने जवाब दिया —
“जी नहीं सर, मैं 50 नहीं... 60 लाऊँगा, ताकि आपके स्कूल के पास कोई बच्चा बिना रोशनी के न रहे।”
यह था उसका पहला बड़ा ऑर्डर।
सोशल मीडिया की ताकत
टीम में एक दोस्त ने इंस्टाग्राम और फेसबुक पर “दीपशक्ति” का पेज बनाया। गाँव की असल तस्वीरें, बच्चों के वीडियो, और ग्रामीणों के अनुभव साझा किए गए। देखते ही देखते लोग जुड़ने लगे।
-
NGOs ने संपर्क किया
-
दो पत्रकारों ने इंटरव्यू किया
-
IIT के इनोवेशन हब में उसका आइडिया शॉर्टलिस्ट हो गया
और फिर —
“Startup India” के तहत दीपशक्ति को ₹1 लाख की सीड ग्रांट मिली।
अब आरव के पास न सिर्फ जुनून था, बल्कि साधन भी थे।
नया मिशन – 1000 घर, 1000 रोशनियां
आरव ने घोषणा की:
“अगले 6 महीनों में हम 1000 घरों तक दीपशक्ति पहुँचाएंगे — और वो भी लागत मूल्य पर। मुनाफा नहीं, बदलाव चाहिए।”
टीम ने गाँवों में कैंप लगाए, महिलाओं को लाइट असेंबलिंग की ट्रेनिंग दी, और युवाओं को "दीपदूत" बनाकर अपने-अपने गाँव में वितरण और फीडबैक का ज़िम्मा दिया।
अब दीपशक्ति एक बिज़नेस नहीं था — यह एक सामाजिक आंदोलन था।
एक ज़िद, जो इतिहास बन गई
दीपशक्ति का दूसरा प्रयास सिर्फ तकनीकी नहीं था — यह इंसानियत और इरादे की जीत थी। आरव ने साबित कर दिया कि
“जो असफलता से नहीं डरता, वही इतिहास बनाता है।”
अब वह IIT का सिर्फ छात्र नहीं था, वह भारत के उस युवा का प्रतीक था —
जो मिट्टी से जन्मता है, रोशनी के लिए लड़ता है, और फिर उसी रोशनी को दूसरों के जीवन में बाँटता है।
'दीपशक्ति' से देशव्यापी विस्तार तक'
आरव और उसकी टीम का सपना अब सीमित नहीं रहा था। पहले जो "दीपशक्ति" सिर्फ गाँव के कुछ बच्चों की पढ़ाई के लिए बना था, अब वह एक राष्ट्रीय अभियान बनने की दिशा में बढ़ रहा था।
छोटे पैमाने पर शुरू हुई यह पहल अब एक समाज-सेवा से प्रेरित स्टार्टअप में बदल चुकी थी — जिसकी रीढ़ थी ज़मीन से जुड़े युवा, तकनीक की ताक़त, और एक अटूट ज़िद।
स्टार्टअप इंडिया, मेक इन इंडिया और सरकार की नज़र
जैसे-जैसे दीपशक्ति का प्रभाव बढ़ने लगा, वैसे-वैसे सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों की नज़र भी इस नवाचार पर पड़ी। आरव को Startup India Yatra के तहत दिल्ली बुलाया गया, जहाँ उसने अपने प्रोजेक्ट को नीति आयोग के सामने प्रस्तुत किया।
उसकी प्रस्तुति समाप्त होते ही एक अधिकारी ने खड़े होकर कहा —
“तुमने हमें याद दिलाया कि इनोवेशन सिर्फ शहरों की कॉरपोरेट बिल्डिंग्स में नहीं, बल्कि गाँव की झोपड़ियों में भी जन्म लेता है।”
उसे ₹10 लाख की Innovation Grant दी गई और "MUDRA Yojana" के तहत उसका स्टार्टअप एक सामाजिक उद्यम के तौर पर मान्यता प्राप्त करने लगा।
टीम का विस्तार – गाँव से IIT तक
अब आरव की टीम में सिर्फ कॉलेज के दोस्त ही नहीं थे, बल्कि वे युवा भी थे जिन्हें उसने खुद ट्रेनिंग दी थी:
-
बिहार के सुमित, जो पहले खेतों में मजदूरी करते थे, अब "दीपशक्ति" के पूर्वी भारत डिस्ट्रीब्यूशन हेड बन चुके थे।
-
छत्तीसगढ़ की रेखा, जिसने पहले कभी स्कूल नहीं देखा था, अब महिलाओं को सोलर लाइट असेंबल करना सिखाती थी।
-
हरियाणा के रवि, जो कभी खुद एक दीपशक्ति लाइट के सहारे पढ़ते थे, अब स्टेट लीडर थे।
अब दीपशक्ति सिर्फ आरव का सपना नहीं रहा था — यह हर उस इंसान की आवाज़ बन चुका था जो अंधेरे से जूझ रहा था।
राज्यों में विस्तार – एक से अनेक
"दीपशक्ति" का पहला विस्तार राजस्थान के बाद हुआ:
-
बिहार: बाढ़-प्रभावित क्षेत्रों में जहां रात में बिजली नहीं रहती थी, वहाँ राहत कैम्पों में दीपशक्ति बाँटी गई।
-
उत्तर प्रदेश: प्राथमिक स्कूलों और आंगनवाड़ियों में सोलर लाइट्स लगाई गईं।
-
मध्य प्रदेश: वन क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी समुदायों तक दीपशक्ति पहुँचाई गई।
आरव ने हर राज्य में स्थानीय युवाओं को “दीपदूत” नाम से ट्रेन किया, जिससे यह एक स्वरोज़गार अभियान भी बन गया। अब लोग दीपशक्ति को बेचकर अपनी जीविका चलाते थे।
मीडिया की नज़र – प्रसिद्धि और परीक्षा
जल्द ही समाचार चैनलों, ऑनलाइन पोर्टल्स और यूट्यूब पर “दीपशक्ति” की कहानियाँ छपने लगीं:
-
"गरीब लड़का बना हजारों घरों की रोशनी का कारण"
-
"IIT छात्र ने बदली गाँवों की तक़दीर"
-
"सपने नहीं, समाधान बेचता है ये युवा"
जहाँ एक ओर तारीफ़ मिली, वहीं कुछ बड़ी कंपनियों ने इसे कॉम्पिटीशन की तरह लिया। उन्होंने नकली दीपशक्ति लाइट्स बनानी शुरू की, कम कीमत में घटिया क्वालिटी बेचनी शुरू की।
लेकिन आरव तैयार था। उसने तुरंत "दीपशक्ति" को एक पंजीकृत ब्रांड बना दिया, डिज़ाइन का पेटेंट करवाया, और एक मोबाइल ऐप लॉन्च किया — जहाँ ग्राहक असली उत्पाद की पहचान कर सकते थे।
निवेश और विस्तार – बड़ा सपना, बड़ी ज़िम्मेदारी
एक दिन एक बड़ा निवेशक आरव से मिलने आया। उसने कहा —
“मैं 2 करोड़ रुपये निवेश करना चाहता हूँ, लेकिन दो शर्तें हैं —
-
तुम दीपशक्ति को सिर्फ लाभ के लिए चलाओ।
-
प्रोडक्शन शहर में शिफ्ट करो। गाँव की यूनिट्स बंद कर दो।”
आरव ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया —
“दीपशक्ति कोई बिज़नेस मॉडल नहीं, यह मेरे गाँव का सपना है। और सपना बिकता नहीं, निभाया जाता है।”
निवेशक चला गया, लेकिन आरव की टीम और मज़बूत हो गई। लोगों ने उसके फैसले का सम्मान किया।
स्कूलों में बदलाव – शिक्षा की नई सुबह
अब दीपशक्ति केवल रोशनी नहीं, शिक्षा के साथ भी जुड़ गई थी। टीम ने "दीपशाला" नाम से एक नया प्रोजेक्ट शुरू किया:
-
हर गाँव में जहाँ दीपशक्ति दी जाती, वहाँ एक मोबाइल लाइब्रेरी और ई-लर्निंग टेबलेट्स भी साथ भेजे जाते।
-
गाँव की लड़कियों को विशेष ट्रेनिंग देकर “दीपशक्ति दीदी” बनाया गया, जो बच्चों को पढ़ाने का कार्य संभालतीं।
आरव को एक चिट्ठी मिली एक छोटी बच्ची से:
“दीपशक्ति वाली लाइट में पढ़कर मैंने पहली बार कहानी की किताब पढ़ी, अब मैं भी एक दिन लेखिका बनना चाहती हूँ।”
यह आरव के लिए किसी नोबेल पुरस्कार से कम नहीं था।
अंतरराष्ट्रीय मंच पर नाम
अब “दीपशक्ति” को संयुक्त राष्ट्र के एक कार्यक्रम में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए आमंत्रित किया गया। आरव ने जब मंच पर कहा:
“हमने तकनीक को व्यापार नहीं, भरोसे का साधन बनाया है — जहाँ इनोवेशन सिर्फ मुनाफा नहीं, परिवर्तन लाता है।”
तो पूरा सभागार तालियों से गूंज उठा।
अब अफ्रीका के दो देशों ने दीपशक्ति के मॉडल को अपनाने में रुचि दिखाई।
दीप से दीप जलता गया
दीपशक्ति अब एक मिशन, ब्रांड और आंदोलन बन चुका था — जो न किसी सरकार की नीति से शुरू हुआ, न किसी करोड़पति की योजना से। यह शुरू हुआ था एक गरीब लड़के की ज़िद से, जिसने ठान लिया था कि अंधेरे में जीना उसके जैसे लाखों बच्चों की किस्मत नहीं, बल्कि एक चुनौती है — जिसे वो बदलेगा।
अब आरव का सपना सिर्फ भारत नहीं, पूरे विश्व को रोशन करना था।
जब सरकार ने बुलाया – नीतियों में बदलाव की शुरुआत
"दीपशक्ति" अब देशभर में एक जाना-पहचाना नाम बन चुका था। छोटे गाँवों से लेकर बड़े शहरों तक इसकी चर्चा हो रही थी। इसका असर सिर्फ बच्चों की पढ़ाई या ग्रामीण रोशनी तक सीमित नहीं था — यह सरकार की नीतियों और सोच को भी झकझोरने लगा था।
आरव ने एक ऐसा मॉडल खड़ा किया था जो न तो करोड़ों की पूँजी से बना था, न किसी विदेशी तकनीक पर आधारित था। वह मॉडल था “स्थानीय ज़रूरत + सरल तकनीक + स्थानीय युवा”।
अब समय था कि यह मॉडल केवल एक स्टार्टअप न रहकर सरकारी विकास नीति का हिस्सा बने।
अचानक आया एक फ़ोन कॉल
एक दिन आरव को एक अनजान नंबर से कॉल आया:
“नमस्ते, मैं नीति आयोग से बोल रहा हूँ। प्रधानमंत्री कार्यालय में आपका प्रोजेक्ट पेश किया गया है। पीएमओ आपसे मिलना चाहता है।”
आरव कुछ क्षणों तक चुप रह गया। जैसे कोई सपना उसकी आँखों में जागते हुए उतर रहा हो।
तीन दिन बाद, दिल्ली के नीति भवन में आरव की मुलाक़ात उन अधिकारियों से हुई जो देश की ऊर्जा नीति, ग्रामीण विकास और स्टार्टअप योजनाओं को आकार देते हैं। उन्होंने आरव से सिर्फ एक ही सवाल किया —
“अगर तुम्हें देश के 6 लाख गाँवों में रोशनी पहुँचानी हो — वो भी सस्ती, टिकाऊ और स्थानीय उत्पादन के ज़रिए — तो तुम क्या करोगे?”
आरव ने बिना रुके कहा:
“सर, सरकार को केवल एक काम करना होगा — भरोसा देना। बाकी काम हम कर लेंगे।”
सरकारी सहयोग की शुरुआत
जल्द ही "दीपशक्ति" को Ministry of Rural Development के तहत एक पायलट योजना के रूप में 2 राज्यों में लागू करने की स्वीकृति मिल गई:
-
झारखंड के पहाड़ी गाँवों में
-
उत्तर प्रदेश के नक्सल प्रभावित जिलों में
सरकार ने न सिर्फ लाइट के उत्पादन और वितरण में सहयोग दिया, बल्कि ग्रामीण युवाओं को “दीपशक्ति टेक्निकल ट्रेनिंग प्रोग्राम” के तहत ट्रेन करना भी शुरू किया।
अब दीपशक्ति एक स्टार्टअप नहीं, भारत सरकार का साझेदार बन चुका था।
प्रधानमंत्री से मुलाकात – एक ऐतिहासिक दिन
कुछ ही महीनों में, दीपशक्ति की रिपोर्ट जब प्रधानमंत्री के सामने पेश हुई, तो उन्होंने विशेष रूप से आरव से मिलने की इच्छा जताई।
प्रधानमंत्री कार्यालय में प्रवेश करते समय आरव को वह दिन याद आया जब वह अपने गाँव में टूटी हुई चप्पलों में स्कूल जाया करता था। आज उसके हाथ में प्रोजेक्ट रिपोर्ट थी, और उसकी आँखों में पूरे देश के गाँवों की उम्मीद।
पीएम ने मुस्कराते हुए कहा:
“बेटा, तूने वो कर दिखाया जो कई योजनाएँ मिलकर नहीं कर पाईं — तुझे देखकर लगता है कि देश का भविष्य सुरक्षित हाथों में है।”
उस दिन प्रधानमंत्री ने घोषणा की:
“सरकार 'दीपशक्ति मॉडल' को 'राष्ट्रीय नवाचार मिशन' के अंतर्गत शामिल करेगी।”
नीतियों में बदलाव
सरकार ने “दीपशक्ति” से प्रेरित होकर कई नई पहलें शुरू कीं:
-
ग्रामीण सौर प्रशिक्षण केंद्र – हर ज़िले में स्थानीय युवाओं को लाइट असेंबली और मरम्मत की ट्रेनिंग।
-
दीप महिला मिशन – महिलाओं को घरेलू रोशनी उत्पादों की असेंबली और सेलिंग के लिए लोन और मार्केट लिंकिंग।
-
शिक्षा के लिए ऊर्जा – हर स्कूल को एक स्थायी सोलर पावर स्रोत से जोड़ने की योजना।
अब आरव की सोच केवल उत्पाद तक सीमित नहीं थी — वह अब एक नीति निर्माता का भागीदार बन गया था।
सवाल भी उठे – ईमानदारी की परीक्षा
जैसे-जैसे दीपशक्ति का प्रभाव बढ़ा, कुछ विरोध भी शुरू हुआ।
-
“एक छात्र इतना बड़ा नेटवर्क कैसे संभाल सकता है?”
-
“कहीं ये विदेशी फंडिंग का खेल तो नहीं?”
-
“क्या गुणवत्ता का स्तर बना रहेगा?”
मीडिया, विपक्षी दलों और कुछ बड़े बिज़नेस हाउस ने सवाल उठाने शुरू कर दिए।
लेकिन आरव ने हर बार खुलकर जवाब दिया —
"हमारे दरवाज़े खुले हैं। आइए, गाँवों में चलिए। वहाँ सच्चाई दीवारों पर लटकी दीपशक्ति से दिखेगी — रिपोर्ट में नहीं।"
RTI और जांच समितियों के बाद जब हर दस्तावेज़, हर लेन-देन, हर यूनिट पारदर्शी निकली — तो आलोचना करने वालों को भी सम्मान करना पड़ा।
जनांदोलन बनता मिशन
अब दीपशक्ति केवल सरकार, संस्थानों या NGOs तक सीमित नहीं रहा। यह एक जनांदोलन बन चुका था:
-
कॉलेजों में दीपशक्ति क्लब खुले
-
गाँवों में दीपफेस्ट जैसे आयोजन हुए
-
कारपोरेट CSR फंडिंग से लाइटें मुफ्त बाँटी गईं
आरव ने एक नई मुहिम शुरू की:
“हर पढ़ने वाले हाथ में एक दीपशक्ति हो।”
इस मिशन के तहत अगले 1 साल में 5 लाख लाइटें बाँटने का लक्ष्य रखा गया।
अब नीति में जुड़ चुका था सपनों का नाम
एक ऐसा लड़का जो मिट्टी में पलकर बड़ा हुआ, जो चाय बेचकर पढ़ा, जो टूटी साइकिल से कॉलेज पहुँचा, आज वह सरकार की नीतियों का चेहरा बन चुका था।
लेकिन आरव अब भी नहीं रुका। उसने कहा —
“जब तक इस देश का आख़िरी बच्चा अंधेरे में पढ़ रहा है, मेरा सपना अधूरा है।”
विश्व मंच पर भारत का बेटा
अब तक “दीपशक्ति” भारत के हज़ारों गाँवों में अंधेरे से उजाले की अलख जगा चुका था। ग्रामीण क्षेत्रों में यह केवल एक सोलर लाइट नहीं, बल्कि आत्मसम्मान, शिक्षा और बदलाव की पहचान बन चुका था।
लेकिन यह बदलाव केवल भारत तक सीमित नहीं रहना था। जिस जुनून और ईमानदारी से आरव ने "दीपशक्ति" को गढ़ा था, उसकी गूंज अब देश की सीमाओं से बाहर भी सुनाई देने लगी थी।
पहला निमंत्रण – संयुक्त राष्ट्र का आमंत्रण
एक सुबह आरव को ईमेल आया —
“United Nations SDG Innovation Forum” में उन्हें भारत के प्रतिनिधि के रूप में आमंत्रित किया गया था।
विषय था:
"Energy for Education: Low-cost Innovations for Developing Nations"
(शिक्षा के लिए ऊर्जा: विकासशील देशों के लिए कम लागत वाले नवाचार)
यह केवल मंच नहीं था — यह वो स्वीकृति थी जो बताती है कि जब भारत का एक गाँव का बेटा खड़ा होता है, तो पूरी दुनिया सुनती है।
न्यूयॉर्क की यात्रा – कंधों पर भारत की पहचान
जब आरव पहली बार हवाई जहाज में बैठा, तो उसे गाँव के खेत, टूटी पगडंडियाँ और रातों के वो दीये याद आ रहे थे जिनके नीचे बैठकर उसने सपने देखे थे। आज उन्हीं सपनों की रौशनी में वह अंतरराष्ट्रीय मंच पर पहुँच रहा था।
UN फोरम में जैसे ही आरव मंच पर पहुँचा, सभी देशों के प्रतिनिधियों ने तालियों से स्वागत किया।
आरव ने बोलना शुरू किया:
“मैं यहाँ एक इंजीनियर के रूप में नहीं, एक विद्यार्थी के रूप में खड़ा हूँ — उस अंधेरे का विद्यार्थी जो मेरे देश के गाँवों में है, और उस उम्मीद का जो एक छोटे से सौर लैंप में छुपी है।”
उसने अपनी प्रेजेंटेशन में केवल आँकड़े नहीं दिखाए —
उसने बच्चों की मुस्कानें, माँ की चिट्ठी, किसानों के चेहरे और गाँव की असली ज़रूरतें दिखाई।
सभा के बाद कई देशों के प्रतिनिधियों ने उससे संपर्क किया —
"क्या आप हमारे देश में भी दीपशक्ति लाना चाहेंगे?"
अफ्रीका और एशिया – दीपशक्ति का वैश्विक विस्तार
पहला विदेशी साझेदार बना — केन्या। वहाँ के ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली की समस्या भारत जैसी ही थी। आरव और उसकी टीम ने वहाँ जाकर स्थानीय युवाओं को प्रशिक्षण दिया और “Light for Learning Kenya” नाम से पहल शुरू की।
इसके बाद
-
बांग्लादेश
-
नेपाल
-
घाना
-
लाओस
जैसे देशों से भी प्रस्ताव आने लगे।
लेकिन आरव ने एक शर्त रखी:
“हम वहाँ के युवाओं को सिखाएँगे, उत्पादन वहीं होगा। क्योंकि यह सिर्फ उत्पाद नहीं, आत्मनिर्भरता का आंदोलन है।”
अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार – और भी ज़िम्मेदारी
-
UNESCO Innovation Medal
-
Bill & Melinda Gates Foundation Grant
-
Asia-Pacific Social Impact Award
इन तमाम सम्मानों के बीच भी आरव की आँखों में वही सादगी थी, वही ज़िद, वही झिझक —
“मैं बड़ा नहीं बना, मेरा सपना बड़ा हुआ है।”
हर मंच पर वह यही कहता:
“Innovation isn’t born in labs. It is born in the dark corners of society — where hope fights with helplessness.”
CNN, BBC, Al Jazeera – मीडिया की सुर्खियों में गाँव का बेटा
अब अंतरराष्ट्रीय मीडिया में “दीपशक्ति” की कहानी गूंज रही थी।
CNN के रिपोर्टर ने पूछा:
“आप इतने बड़े स्तर पर काम कर रहे हैं, अब क्या आप मल्टीनेशनल कंपनी बनाएँगे?”
आरव ने जवाब दिया:
“हम कंपनी नहीं, संस्कृति बना रहे हैं — रोशनी बाँटने की संस्कृति।”
BBC ने जब डॉक्यूमेंट्री बनाई, उसका नाम रखा गया —
“The Boy Who Chased Light” (जिसने रौशनी का पीछा किया)
भारत लौटकर – सम्मान और संकल्प
जब आरव भारत लौटा, तो एयरपोर्ट पर मीडिया से लेकर छात्रों तक की भीड़ उसे देखने आई। IIT ने उसे “Distinguished Alumni” घोषित किया। राष्ट्रपति भवन में पद्मश्री देने की घोषणा हुई।
लेकिन गाँव में जो स्वागत हुआ, वो सबसे खास था —
उसके स्कूल की दीवार पर लिखा गया:
“हमारे आरव – अंधेरे से उजाले तक की यात्रा”
विश्व मंच से गाँव की गलियों तक
अब “दीपशक्ति” 12 देशों में काम कर रही थी, भारत के 20 राज्यों में 1 करोड़ से ज़्यादा यूनिट पहुँच चुकी थी, और 25,000 से ज़्यादा युवाओं को रोज़गार दे चुकी थी।
लेकिन आरव अब भी हर महीने अपने गाँव आता था। वहाँ बच्चों के साथ बैठकर किताबें बाँटता, महिलाएं उसे मिठाई खिलातीं, और किसान पूछते —
“अब और क्या बना रहा है बेटा?”
वह मुस्कुराकर कहता:
“अब हम मिट्टी से बिजली बनाएँगे।”
भारत का बेटा, दुनिया की रौशनी
आरव अब केवल एक स्टार्टअप का संस्थापक नहीं था। वह नई पीढ़ी के भारत का प्रतीक बन चुका था — जहाँ गरीबी, अंधेरा और संघर्ष ही भविष्य का आधार बनते हैं।
आज जब वह किसी मंच पर खड़ा होता है और कहता है:
"मैं गरीब था, लेकिन मैं बड़ा सोचता था — और बड़ा सोचने वालों को दुनिया कभी छोटा नहीं समझती",
तो हर कोना तालियों से गूंज उठता है।
बदलाव की विरासत – दीपशक्ति के बाद की दिशा
“दीपशक्ति” अब एक मिशन से कहीं आगे बढ़ चुका था। यह एक आंदोलन, एक विचारधारा और एक प्रेरणा बन गया था। आरव ने जिसे एक छोटी-सी सोलर लाइट से शुरू किया था, वह अब वैश्विक स्तर पर स्थायी विकास और ग्रामीण परिवर्तन की मिसाल बन चुका था।
लेकिन आरव की नज़र अब भविष्य पर थी — उस बदलाव पर जो सिर्फ एक व्यक्ति या एक संस्था से नहीं, बल्कि पूरे समाज से पैदा हो।
अगला सपना: “रौशनी से आत्मनिर्भरता तक”
आरव जानता था कि रोशनी देने से जीवन की मुश्किलें खत्म नहीं होतीं। असली परिवर्तन तब आता है जब इंसान अपने पैरों पर खड़ा हो। दीपशक्ति से शुरू हुआ सफर अब आगे बढ़ना था — रोज़गार, शिक्षा, स्वास्थ्य और नवाचार की ओर।
इसलिए आरव ने एक नया प्रोजेक्ट शुरू किया:
“आत्मदीप – गाँवों के लिए 360° विकास मॉडल”
इस योजना के तहत हर गाँव में निम्नलिखित चार केंद्र बनाए गए:
-
ऊर्जा केंद्र – जहाँ स्थानीय युवा सोलर लाइट, पंखा, स्टोव जैसी चीज़ें बनाना और मरम्मत करना सीखते।
-
शिक्षा केंद्र – डिजिटल लर्निंग, पुस्तकालय और ई-क्लासरूम।
-
रोज़गार केंद्र – महिलाओं और युवाओं को स्टार्टअप और स्वरोज़गार की ट्रेनिंग।
-
स्वास्थ्य केंद्र – सोलर ऊर्जा से चलने वाले प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं।
यह मॉडल अब तक 7 राज्यों में लागू हो चुका था।
नेतृत्व की नई परिभाषा
आरव को हर जगह से बुलावा आने लगा —
-
TEDx
-
IIMs और IITs
-
नीति आयोग और संसद के सलाहकार समूह
-
अंतरराष्ट्रीय NGO सम्मेलन
-
Youth Leadership Summits
लेकिन हर मंच पर आरव एक बात दोहराता:
“नेतृत्व वो नहीं जो भीड़ को पीछे चलने के लिए कहे,
नेतृत्व वो है जो सबसे पीछे खड़े को सबसे आगे लाए।”
उसने “दीपवृक्ष” नाम की संस्था बनाई, जिसमें 100 से ज़्यादा युवा लीडर्स को ट्रेन किया जाता, ताकि वे अपने-अपने गाँव में “दीपशक्ति मॉडल” को आगे बढ़ा सकें।
नयी पीढ़ी, नया भारत
आरव ने अब हर राज्य में Youth Rural Innovation Hubs शुरू किए, जहाँ युवा
-
अपनी समस्याओं को इनोवेशन से हल करना सीखते
-
स्थानीय संसाधनों से प्रोडक्ट बनाना सीखते
-
मार्केटिंग, डिजिटल पेमेंट, डिजाइनिंग जैसी स्किल्स सीखते
हर साल हजारों स्टूडेंट्स इस हब से निकलकर गाँव के CEO बनते — और अपने समुदाय के लिए समाधान गढ़ते।
एक वैश्विक मंच से बोलते हुए उसने कहा:
“हम हमेशा विदेश से समाधान लेते हैं, लेकिन क्या आपने कभी देखा है कि मिट्टी का चूल्हा कितना टिकाऊ होता है?
क्या आपने सोचा है कि गाँव की औरतें कितनी दक्ष होती हैं योजनाओं को लागू करने में?
समाधान वहीं हैं — बस हमें उन्हें पहचानने और संवारने की ज़रूरत है।”
उत्तराधिकार – जब आरव पीछे हटा
10 वर्षों के लंबे सफर के बाद, जब दीपशक्ति भारत के 2 करोड़ से ज़्यादा घरों में पहुँच चुका था, जब 30 देशों में इसकी शाखाएँ थीं, और जब 50,000 से अधिक युवा इससे जुड़े थे — तब आरव ने एक अद्भुत फैसला लिया।
उसने CEO की कुर्सी छोड़ी।
टीम के सामने खड़े होकर उसने कहा:
“अब समय है कि दीपशक्ति मेरा नहीं, आप सबका सपना बने। मैं पीछे हटता हूँ ताकि आप सब आगे आ सकें।”
वह एक युवा लड़की रेखा, जो पहले दीपशक्ति की पहली ट्रेनी थी, को नई CEO नियुक्त करता है।
गाँव लौटना – वहीं से फिर शुरुआत
आरव अब गाँव लौट चुका है —
वही मिट्टी, वही लोग, वही सादगी।
लेकिन वह अब पहले वाला आरव नहीं है —
अब वह “भारत का बेटा” है, जिसकी कहानी हर बच्चा जानता है।
वह अब गाँव के स्कूल में बच्चों को पढ़ाता है, नई तकनीकें सिखाता है, और उनसे पूछता है:
“तुम क्या बनना चाहते हो?”
एक बच्चा कहता है:
“सर, मैं भी दीपशक्ति बनना चाहता हूँ — जो खुद नहीं जलता, औरों को रोशन करता है।”
विरासत जो रुकती नहीं
आरव की यात्रा सिर्फ एक लड़के की संघर्ष गाथा नहीं थी, यह उस भारत की तस्वीर थी
— जहाँ मिट्टी से सोना निकलता है,
— जहाँ अंधेरे से उजाले की लड़ाई हारी नहीं जाती,
— और जहाँ बदलाव किसी मंत्री या मशीन से नहीं,
बल्कि एक जिद्दी दिल और एक सच्चे इरादे से आता है।
अब दीपशक्ति कोई ब्रांड नहीं,
एक विरासत है —
जो पीढ़ी दर पीढ़ी
उजाले की मशाल बनकर जलती रहेगी।
लौटकर देखना – मिट्टी का कर्ज़
सफलता की ऊँचाइयों को छूने के बाद जब आरव वापस अपने गाँव आया, तो उसके कदमों में थकान नहीं थी — बल्कि एक शांति, एक पूर्ति थी। जैसे जीवन ने उसे वहाँ पहुँचा दिया था, जहाँ उसे अंत में होना ही था — अपनी मिट्टी में, अपने लोगों के बीच।
अब वह CEO नहीं था, न किसी मंच का स्टार। अब वह फिर से वही आरव था — जो कभी स्कूल की छत पर बैठकर तारे गिनता था, जो चाय की दुकान पर अख़बार के पन्ने पलटता था, और जो हर रात सोचता था कि एक दिन वो कुछ बड़ा करेगा।
गाँव की मिट्टी में लौटना
उसने अपना दिन गाँव के बच्चों के साथ शुरू करना शुरू किया। सुबह-सुबह स्कूल के मैदान में बैठकर उनसे पूछता:
"आज क्या नया सीखा?"
कभी वो गाय चराने वाले बच्चों को अक्षर सिखाता, तो कभी खेत में काम करते किशोरों को बिज़नेस का मतलब समझाता।
“जो भी सीखा है, अब उसे यहीं बोऊँगा — ताकि आने वाली फसलें मुझसे बेहतर निकलें।”
उसने यह बात एक बार अपने बचपन के दोस्त लाला से कही।
दीपशक्ति केंद्र – एक नई शुरुआत
आरव ने गाँव में एक बड़ा घर खरीदा नहीं,
बल्कि एक पुराना खंडहरनुमा स्कूल भवन को फिर से बनवाया —
नाम रखा: "दीपशक्ति केंद्र – जन चेतना और नवाचार संस्थान"
यहाँ कोई डिग्री नहीं मिलती थी,
यहाँ ज़िंदगी की शिक्षा दी जाती थी:
-
कैसे एक मजदूर भी मशीने बना सकता है
-
कैसे एक किसान अपने खेत का वैज्ञानिक बन सकता है
-
कैसे एक बच्चा सिर्फ सपना नहीं, समाधान बन सकता है
माँ की मिट्टी – माँ की मुस्कान
एक शाम वह अपनी माँ की कब्र के पास बैठा।
साथ में वही पुरानी डायरी थी, जिसमें माँ की चिट्ठियाँ थीं।
उसने धीरे से पढ़ा:
"जिस दिन तू दूसरों को भी खुद जैसा बना सके, उस दिन तू सच्चा बेटा कहलाएगा।"
आज वह दिन आ चुका था।
आरव ने कब्र की मिट्टी को उठाकर माथे से लगाया और कहा:
“माँ, तेरा कर्ज़ आज भी बाकी है —
लेकिन मैं हर दिन इसे चुकाता रहूँगा,
हर उस बच्चे की मुस्कान में जो दीपशक्ति से पढ़ता है।”
अंत में क्या मिला?
किसी ने आरव से पूछा —
“तुमने सब कुछ छोड़कर गाँव लौटना क्यों चुना?”
उसने मुस्कुराते हुए कहा:
“क्योंकि मुझे याद है — मैं जहाँ से निकला था, वहाँ आज भी कई आरव सपने देख रहे हैं।
अगर मैं नहीं लौटा, तो उन्हें रास्ता कौन दिखाएगा?”
प्रेरणा बन चुकी कहानी
अब “दीपशक्ति” सिर्फ एक ब्रांड, एक लाइट या एक संस्था नहीं थी —
यह एक कहानी थी जो हर युवा को सिखाती थी:
-
गरीबी कभी बाधा नहीं होती
-
संघर्ष कभी स्थायी नहीं होता
-
और सपने कभी छोटे नहीं होते
हर साल लाखों छात्र “दीपशक्ति मॉडल” पढ़ते, उस पर प्रोजेक्ट बनाते, और कई संस्थान इसे “भारत के ग्रामीण पुनर्जागरण” की मिसाल मानते।
भविष्य का संदेश
आरव अब भी हर सुबह एक खेत में बैठकर सोचता है —
"अब आगे क्या?"
लेकिन अब उसका उद्देश्य बदल चुका है।
वह नहीं चाहता कि सिर्फ एक दीपशक्ति बने,
वह चाहता है कि हर गाँव, हर बच्चा, हर युवा – एक दीपशक्ति बन जाए।
अंतिम पंक्तियाँ: मिट्टी का कर्ज़
"मैंने ऊँचाइयाँ देखीं, तालियाँ सुनीं, पदक पहने, मंचों पर बोला —
लेकिन जब मैंने माँ की मिट्टी को माथे से लगाया, तब समझ आया कि
असली शिखर वही है जहाँ से हम चले थे।
क्योंकि जो अपने गाँव को रोशन कर दे,
वही असल में दुनिया को रोशन करता है।"