"धूल से आसमान तक: एक गरीब बच्चे की IAS बनने की कहानी" (From dust to sky: the story of a poor child becoming an IAS)
गाँव का नाम था धनुआपुर — ऐसा गाँव जहाँ सड़कें थीं, पर उस पर गड्ढों का राज था। बिजली थी, पर सिर्फ चुनावों के वक़्त। स्कूल था, मगर वहाँ मास्टर जी कम और छुट्टियाँ ज़्यादा थीं। और उसी गाँव की सबसे पिछली गली में एक कच्ची झोपड़ी थी, जिसकी छत पर प्लास्टिक की शीट बाँधी गई थी। वहीं पैदा हुआ था रामू।
रामू का जन्म किसी विशेष संयोग या पर्व पर नहीं हुआ था, बस एक सामान्य सी रात थी जब उसकी माँ गौरी खेत से काम करके लौटी थी और वहीँ पीड़ा से कराहती हुई एक बेटे को जन्म देती है। कोई अस्पताल नहीं, कोई डॉक्टर नहीं। बस एक दाई और मिट्टी की ज़मीन। और उस मिट्टी में लिपटी हुई एक आशा — रामू।
रामू के पिता धरमू दिनभर गाँव की चौपाल पर बैठे रहते। सुबह से शाम तक बीड़ी और शराब में डूबे रहते थे। हर शाम घर लौटकर पत्नी गौरी पर गुस्सा निकालते और चिल्लाते, “तेरे बेटे से क्या होगा? हमारे भाग्य में तो गरीबी ही लिखी है!”
मगर गौरी हर रोज़ रामू को गोद में उठाकर कहती, “देखना एक दिन यही बेटा हमारे भाग्य को बदल देगा। भले ही मिट्टी में जन्मा है, पर यह एक दिन आसमान छुएगा।”
रामू बचपन से ही अलग था। मिट्टी के खिलौनों से नहीं खेलता, बल्कि टूटे काँच से अक्षर बनाता। जब बाकी बच्चे ढेले मारते, रामू ज़मीन पर अंगुली से ‘क, ख, ग’ लिखता। उसकी आँखों में नज़ारे नहीं, सपने पलते थे।
गाँव के सरकारी स्कूल में उसका दाखिला हुआ, जहाँ मास्टर जी सप्ताह में दो दिन आते थे। लेकिन रामू हर दिन स्कूल जाता, और बंद दरवाज़े के सामने बैठकर वही दोहराता जो पिछली बार पढ़ाया गया था। माँ ने कहीं से पुरानी किताबें बटोरी थीं – फटी हुईं, कुछ पन्ने ग़ायब, लेकिन रामू के लिए वो किताबें ख़जाना थीं।
रात को जब घर में दीया जलाने के लिए तेल भी नहीं होता, तब रामू माँ के कहने पर पड़ोसी के घर से जलती हुई लकड़ी लेकर आता और उसकी रोशनी में पढ़ता। माँ अक्सर कहती,
“बेटा, तू पढ़ लेगा तो तेरा भाग्य भी बदलेगा और मेरा भी।”
“अरे रामू के घर में दो वक्त की रोटी नहीं, और सपना देखता है अफ़सर बनने का! ये तो हँसी की बात है!”
“साहब, क्या आप भी पढ़-लिखकर ऐसे बन गए हैं?”
“माँ, मैं भी साहब बनूँगा। मैं भी सफ़ेद कपड़े पहनूँगा और लोगों की मदद करूँगा।”
“क, ख, ग... देश का कल बनूँगा मैं।”
“तू खेती कर, पढ़-लिख के क्या करेगा?”
“अगर आप मेरी किताबें जलाएंगे तो मैं ज़मीन पर ही पढ़ लूंगा। मिट्टी मेरा कागज़ है और उंगलियाँ मेरी क़लम।”
“ये लड़का अलग है...”
“क्या पता, एक दिन नाम कमा जाए।”
गाँव में अक्सर लोग कहते,
लेकिन रामू कभी हँसता नहीं था। वो चुपचाप मेहनत करता रहा।
एक दिन की बात है। गाँव में ज़िलाधिकारी (DM साहब) का दौरा हुआ। चारों ओर साफ़-सफ़ाई, पुलिस का पहरा, और लोग अपनी समस्याओं के लिए कतार में। रामू भीड़ में पीछे खड़ा था, नंगे पैर, धूल में लथपथ, लेकिन आँखें उस गाड़ी पर टिकी थीं जिससे सफ़ेद कुरते-पाजामे में एक अफसर निकला।
रामू धीरे-धीरे क़दम बढ़ाते हुए डीएम साहब के पास पहुँचा और बिना डरे बोला,
डीएम मुस्कुराए, “हाँ बेटा, बहुत मेहनत की है। बहुत पढ़ाई। तुम भी बन सकते हो अगर चाहो तो।”
वो पहला दिन था जब रामू ने पहली बार महसूस किया कि उसका सपना सिर्फ सपना नहीं, एक संभावना है।
उसी रात रामू माँ से बोला, माँ की आँखों से आँसू बह निकले, “हाँ बेटा, तू ज़रूर बनेगा। मेरी दुआएँ तेरे साथ हैं।” अब रामू का हौसला दुगना हो गया। वह सुबह 4 बजे उठकर खेतों में माँ का हाथ बँटाता और फिर स्कूल की तरफ़ दौड़ पड़ता। शाम को लौटते हुए पगडंडियों पर गुनगुनाता, स्कूल में जब वार्षिक परीक्षा हुई, तो पूरे गाँव के लिए एक चमत्कार था — रामू कक्षा में प्रथम आया था। उसे स्कूल से एक पुराना बैग इनाम में मिला, जिसकी एक चेन टूटी हुई थी लेकिन रामू ने उसे ऐसे संभाला जैसे कोई सोने का ताज। अब वह गाँव में थोड़ा मशहूर हो गया था। मास्टर जी ने भी उसे विशेष ध्यान देना शुरू कर दिया। मगर पिता का रवैया वही रहा। एक दिन पिता ने उसकी किताबें जलाने की धमकी दी और बोला, रामू डरा नहीं। बोला,यह बात धीरे-धीरे पूरे गाँव में फैल गई। लोग अब रामू को मज़ाक से नहीं, आश्चर्य से देखने लगे।
गाँव का पहला बच्चा जिसने 5वीं कक्षा में पूरी तहसील में टॉप किया था – वही रामू था।
और फिर रामू की ज़िंदगी बदलने लगी... धीरे-धीरे।
“टूटी झोपड़ी और जलता दीया” – जहाँ रामू गाँव के बाहर की दुनिया में अपना पहला कदम रखता है।
टूटी झोपड़ी और जलता दीया
धनुआपुर की हवाओं में अब एक नाम गूंजने लगा था — रामू। जिसने पाँचवीं कक्षा में तहसील भर में पहला स्थान पाया था। गाँव वालों की नज़रों में वह अब सिर्फ एक गरीब लड़का नहीं, बल्कि उम्मीद की किरण बन चुका था। लेकिन उम्मीद का सूरज जब निकलता है, तो सबसे पहले अंधेरे से उसका टकराव होता है।
रामू की इस सफलता पर घर में कोई मिठाई नहीं बँटी। माँ ने बस चूल्हे पर एक रोटी ज़्यादा सेंकी और उसी को मुस्कुराते हुए कहा,
“आज बेटा जीत कर आया है, तो ये रोटी राजा की थाली है।”
पिता, धरमू, इस जीत से कुछ ख़ास प्रभावित नहीं हुए। उल्टे चिढ़ते हुए बोले,
“क्या होगा इन नंबरों का? ना नौकरी मिलेगी, ना पेट भरेगा! खेती कर, मेहनत कर!”
लेकिन माँ ने पहली बार आवाज़ उठाई —
“धरमू! बेटा पढ़ रहा है, सपने देख रहा है। अगर उसे रोक दोगे, तो उसकी आँखों की रौशनी छीन लोगे।”
पिता चुप हो गया, लेकिन आँखों में क्रोध उतर आया।
रामू को अब आगे की पढ़ाई के लिए जिला स्कूल में जाना था, जो गाँव से आठ किलोमीटर दूर था। वहाँ तक का सफर पैदल तय करना होता था। किराया देने का सवाल ही नहीं उठता, और साइकिल खरीदने के लिए घर में पैसे नहीं थे।
माँ ने अपनी पुरानी चाँदी की बाली बेच दी, जो उसे शादी में मिली थी। और उसी से रामू के लिए एक पुरानी साइकिल खरीदी, जो बहुत सालों से कबाड़ में पड़ी थी। रामू ने उसे साफ किया, टायर में पंखा भरवाया, ब्रेक नहीं थे लेकिन उसके हौसले ब्रेक से कहीं तेज़ थे।
पहले दिन जब वह साइकिल लेकर जिला स्कूल गया, तो उसके कपड़े मैले थे, चप्पल फटी हुई, लेकिन बैग में किताबें थीं और आँखों में आग।
शहर के बच्चों ने उसका मज़ाक उड़ाया।
“गाँव से आया गँवार!”
“देखो इसकी हालत...! ये पढ़ेगा हमारे साथ?”
रामू चुप रहा। माँ ने सिखाया था —
“बेटा, जब लोग हँसें, तो तुम अंदर मुस्कराना। क्योंकि अगर हँसी का जवाब गुस्से से दोगे, तो सपना खो दोगे।”
रामू हर दिन साइकिल से आता-जाता, कभी बारिश में भीगता, कभी धूप में जलता। लेकिन उसकी किताबों पर एक बूंद भी पानी नहीं गिरने देता। वो स्कूल के बाद पास की सार्वजनिक लाइब्रेरी में जाता, जहाँ बस दो घंटे बैठने की अनुमति मिलती थी। वही दो घंटे उसके लिए अमूल्य थे।
घर आकर वह माँ के साथ खेतों में हाथ बँटाता। कभी पानी खींचता, कभी बैल हाँकता। फिर रात को झोपड़ी में जलते दीये के सामने बैठकर पढ़ाई करता। दीया कभी बुझ जाता, तो माँ अपने आँचल से हवा रोकती और बोलती,
“जब तक तू पढ़ रहा है, मैं बैठी हूँ बेटा।”
एक रात की बात है, गाँव में बहुत तेज़ आंधी आई। झोपड़ी की प्लास्टिक की छत उड़ गई, पूरा घर बारिश से भीग गया। रामू की किताबें भीगने लगीं। वह फूट-फूट कर रो पड़ा। माँ ने पास आकर कहा,
“बेटा, दीवारें गिर जाएं तो फिर बनाई जा सकती हैं, पर हिम्मत एक बार गिरी, तो फिर नहीं बनती। संभाल खुद को, मैं देखती हूँ।”
गौरी ने पड़ोसी से बोरा माँगा, और पूरी रात भीगते हुए रामू की किताबों को ढककर बैठी रही।
सुबह जब सूरज निकला, तो रामू ने माँ को देखा — बाल भीगे, कपड़े कीचड़ से सने हुए, लेकिन चेहरा शांत। उस दिन उसने ठान लिया था —
“अब मैं सिर्फ अपने लिए नहीं पढ़ रहा, माँ के लिए पढ़ रहा हूँ। उसकी रातों के बदले मुझे एक उजाला बनना है।”
धीरे-धीरे रामू ने जिला स्कूल में भी खुद को साबित करना शुरू कर दिया। हर परीक्षा में टॉप करता, हर शिक्षक उसे सराहते। लाइब्रेरी में बैठे-बैठे अब वह अख़बार भी पढ़ने लगा था। देश-दुनिया के बारे में जानने की ललक बढ़ती जा रही थी।
एक दिन अख़बार में पढ़ा —
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“UPSC: देश की सबसे कठिन परीक्षा, लेकिन सबसे प्रतिष्ठित सेवा।”
उसने पन्ने को मोड़ा और माँ से बोला,
“माँ, यही है वो रास्ता। यही परीक्षा मुझे वो बना सकती है, जो मैं बचपन से बनना चाहता हूँ — IAS अधिकारी।” माँ चौंकी नहीं, बस मुस्कुराकर बोली, “जो तू तय करे, वही तेरी मंज़िल बन जाती है बेटा।” लेकिन इस सपने के रास्ते में अब बड़ी चुनौती थी — पैसे। जिला स्कूल तक तो किसी तरह पढ़ाई हो रही थी, लेकिन आगे कॉलेज, कोचिंग, और फिर UPSC? ये सब तो हजारों लाखों रुपए की बात थी। मगर माँ और रामू ने ठान लिया था कि सपना देखा है, तो रास्ता भी निकालेंगे।
गाँव के एक सज्जन, श्याम बाबू, जो कभी स्कूल में प्रधानाचार्य रहे थे, उन्होंने रामू की मेहनत देखकर एक प्रस्ताव रखा — “रामू, मैं तुझे हर शाम दो घंटे पढ़ाऊँगा। बस तू कभी हार मत मानना।”
रामू ने उनके पैर छूते हुए कहा, “गुरुजी, आप पढ़ाएंगे तो मैं पढ़ता ही नहीं, उड़ता जाऊँगा।”
अब शामें श्याम बाबू के घर में गुज़रतीं और रातें दीये के सामने। माँ खेतों में ज़्यादा समय देने लगी थी, ताकि कुछ पैसे और जुड़ सकें। कई बार थक कर गिर भी जातीं, लेकिन कहतीं —
“जब बेटा ऊँचाई पर जाए, तो माँ को नींद नहीं आती बेटा, बस आशीर्वाद आता है।” टूटी झोपड़ी अब उम्मीदों की दीवार बन रही थी। और वह जलता दीया, जो कभी बुझा नहीं — वह रामू की ज़िंदगी का सबसे बड़ा प्रेरणास्त्रोत बन चुका था।
“स्कूल की पहली पाठशाला” — रामू कैसे जिला स्कूल में आगे बढ़ता है, उसकी कड़ी मेहनत और कुछ ऐसे मोड़, जो उसके भविष्य को आकार देते हैं।
स्कूल की पहली पाठशाला
शहर के जिला स्कूल की दीवारें ऊँची थीं, कक्षाएँ बड़ी थीं और बच्चे… अलग दुनिया के लगते थे। महंगे बैग, चमचमाती किताबें, घड़ियाँ और जूते — यह सब रामू के लिए परियों की कहानी जैसा था। लेकिन एक बात जो उनमें नहीं थी — वह थी भूख, जो रामू में थी।
रामू जानता था कि उसकी जेब में रुपये नहीं, लेकिन दिमाग़ में सपनों की दौलत है। इसलिए वो रोज़ साइकिल से स्कूल आता, और सबसे आगे की बेंच पर बैठने की कोशिश करता, ताकि कोई बात छूटे नहीं। उसे हर शब्द मोती जैसा लगता था।
एक दिन अंग्रेज़ी की क्लास में शिक्षक ने पूछा, “Who is your role model?”
बच्चों ने जवाब दिए — अब्दुल कलाम, नेहरू, गांधी… रामू उठा और बोला,
“My role model is… my Mother. Because she gives me light when world gives me darkness.”
पूरी कक्षा खामोश हो गई। शिक्षक भी कुछ देर देखता रहा। फिर कहा,
“Very good, Ramoo. You don’t need fancy English, you have real feelings.”
वहीं से रामू की एक और पहचान बनी — अब उसे शिक्षक सिर्फ नाम से नहीं, काबिलियत से जानने लगे।
स्कूल में समय के साथ-साथ चुनौतियाँ भी बढ़ीं। क्लास के कुछ बच्चे उसे “गाँव का गंवार” कहकर चिढ़ाते थे। कभी कोई उसकी किताब छुपा देता, कभी सीट से हटा देता। एक दिन एक अमीर लड़के ने उसकी साइकिल का टायर पंचर कर दिया।
रामू चुपचाप टायर को कंधे पर रखकर तीन किलोमीटर दूर साइकिल की दुकान तक पैदल गया। रास्ते में पसीने से लथपथ वह बड़बड़ाया, “अगर आज मैं टूट गया, तो माँ का सपना भी टूटेगा। मुझे यह लड़ाई लड़नी ही है।” रामू की ज़िंदगी का हर दिन एक परीक्षा थी, लेकिन उसके अंदर का जुनून किसी सेना से कम नहीं था।
रामू की पहली जीत: भाषण प्रतियोगिता
स्कूल में भाषण प्रतियोगिता का आयोजन हुआ – विषय था “देश का भविष्य और युवा”।
रामू ने गाँव की ज़िंदगी, भूख, शिक्षा की कमी, और अपनी माँ के संघर्ष को अपनी आवाज़ में पिरोया। उसकी आँखें डबडबाई थीं लेकिन आवाज़ मजबूत थी: “देश के युवाओं को किताबों की ज़रूरत है, कांच के पर्दों की नहीं। हमें ऊँचाई तक पहुंचने के लिए सीढ़ियाँ नहीं, हौसला चाहिए। अगर एक गरीब का बेटा सपने देख सकता है, तो वो उन्हें पूरा भी कर सकता है।” सारा हाल तालियों से गूंज उठा। और उसी दिन रामू को स्कूल का सर्वश्रेष्ठ वक्ता चुना गया।
इनाम में मिली एक नई नोटबुक और एक क़लम — जो उसके लिए किसी ताजमहल से कम नहीं थी।
गुरु और रामू श्याम बाबू, जो अब रामू के मार्गदर्शक बन चुके थे, हर दिन उसे सिर्फ किताबें ही नहीं पढ़ाते, बल्कि ज़िंदगी के पाठ भी सिखाते। एक शाम उन्होंने पूछा:
“रामू, बताओ… अफसर बनने के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ क्या है?” रामू बोला, “मेहनत?”
“नहीं,” श्याम बाबू मुस्कुराए। “मेहनत तो हर कोई करता है। पर **लगातार, बिना थके, बिना डरे — वही मेहनत जो थकावट को पहचानने ही ना दे — वही असली हथियार है।”
“और दूसरा हथियार — नैतिकता। जब तुम ऊँचाई पर पहुँचो, तब भी अपने गाँव, माँ, और मिट्टी को मत भूलना।” रामू ने सिर झुकाकर कहा, “मैं वादा करता हूँ गुरुजी, मैं कभी अपने गाँव को नहीं भूलूँगा।” अब रामू का एक नियम बन गया था — सुबह 5 बजे उठकर पढ़ाई, फिर स्कूल, शाम को श्याम बाबू के पास पढ़ना, और रात को खेत में माँ के साथ काम।
हर महीने के अंत में वह अपनी किताबों के कोने में एक छोटा सा वादा लिखता: “मैं हार नहीं मानूँगा।” स्कूल का अंतिम वर्षरामू अब बारहवीं कक्षा में था। यह साल निर्णायक था। परीक्षा में अच्छे अंक लाने पर शहर के सबसे बड़े कॉलेज में प्रवेश मिलने की संभावना थी — और वहीं से उसकी IAS यात्रा की शुरुआत होती। लेकिन तभी अचानक घर में मुसीबत टूट पड़ी। पिता को गंभीर बीमारी हो गई। इलाज के लिए पैसे नहीं थे। माँ खेत नहीं जा पा रही थी। रामू के लिए दो वक्त की रोटी का इंतज़ाम करना भी मुश्किल हो गया। श्याम बाबू ने कुछ आर्थिक सहायता दी, लेकिन यह काफी नहीं था। रामू अब सुबह 4 बजे अख़बार बाँटने लगा, फिर स्कूल जाता। दिन में किताबों की डिलीवरी करता और शाम को लोगों के कपड़े प्रेस करके कुछ पैसे जोड़ता। एक दिन उसकी माँ ने कहा,
“बेटा, पढ़ाई का बोझ ज़्यादा मत ले, अभी घर की ज़िम्मेदारी निभा ले।”
रामू मुस्कुराया,
“माँ, घर का बोझ उठाकर ही मैं एक दिन तेरा नाम रोशन करूँगा। तू देखना।” और सचमुच, जब बारहवीं का परिणाम आया — रामू ने पूरे जिले में प्रथम स्थान प्राप्त किया। अब उसे शहर के सबसे प्रतिष्ठित कॉलेज में छात्रवृत्ति (scholarship) मिल गई थी। उस दिन माँ ने पहली बार अपनी आँसू बहने दी — ख़ुशी के आँसू। "शहर की नई दुनिया" — रामू कॉलेज में कदम रखता है, नए संघर्ष शुरू होते हैं, लेकिन सपनों की लहरें और तेज़ चलने लगती हैं।
शहर की नई दुनिया
जब रामू ने जिले में टॉप किया और शहर के सबसे बड़े कॉलेज से छात्रवृत्ति पाई, तो पहली बार उसकी माँ ने माथे पर चंदन लगाया और बोली: “आज तू गाँव का नहीं, इस देश का बेटा बन गया है।” लेकिन रामू जानता था कि यह तो सिर्फ शुरुआत है। असली लड़ाई अब थी — IAS का सपना अब कागज़ पर नहीं, हकीकत में बदलने का वक्त आ गया था।
पहला कदम: शहर की चकाचौंध
रामू जब पहली बार शहर पहुँचा, तो वहाँ की इमारतें, ट्रैफिक, लोग, और तेज़ रफ्तार ज़िंदगी देखकर थोड़ी देर के लिए घबरा गया। वह सोचने लगा — "क्या मैं यहाँ फिट हो पाऊँगा? क्या एक झोपड़ी में पले लड़के की जगह इन आलीशान दीवारों में है?" कॉलेज में प्रवेश के पहले दिन वह अपने पुराने बैग, फीकी कमीज़ और घिसी हुई चप्पलों में पहुँचा। बाकी छात्र महंगे कपड़ों, स्मार्टफोन और कारों के साथ आए थे। रामू की सादगी किसी कोने में खड़ी हुई लगती थी। लेकिन जैसे ही क्लास शुरू हुई और प्रोफेसर ने सवाल पूछे, रामू के जवाबों ने सबको चौंका दिया। उसकी साफ़ सोच, ग्रामीण अनुभव और गहरी समझ ने प्रोफेसर को प्रभावित किया। उन्होंने क्लास में कहा: “यही है असली प्रतिभा। किताबें सिर्फ पढ़ने के लिए नहीं होतीं, समझने और बदलने के लिए होती हैं।”
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नई चुनौतियाँ
कॉलेज में पढ़ाई मुश्किल थी। अंग्रेज़ी माध्यम, नई विषयवस्तु, डिजिटल नोट्स, प्रेज़ेंटेशन — यह सब रामू के लिए बिल्कुल नया था। पहले कुछ हफ्तों तक वह अक्सर अकेला होता। न दोस्त बनते थे, न किसी से खुलकर बात हो पाती। कुछ छात्र उसकी ग्रामीण पृष्ठभूमि का मज़ाक उड़ाते:
“गाँव वाला क्या UPSC देगा?”
“इसको तो लैपटॉप भी चलाना नहीं आता!”
“अरे ये तो पहला साल भी पास नहीं कर पाएगा।”
रामू चुपचाप सब सुनता रहा। लेकिन हर एक ताने को उसने ईंधन बनाया अपने सपनों की आग के लिए। रामू का बदलाव - रामू ने रातों में लैब में जाकर कंप्यूटर चलाना सीखा, इंटरनेट का उपयोग करना शुरू किया, और ऑनलाइन UPSC की कोचिंग की तैयारी में जुट गया।
उसने कॉलेज की लाइब्रेरी में सिविल सेवा से जुड़ी किताबें पढ़नी शुरू कीं —
लक्ष्मीकांत की 'Indian Polity',
NCERT की इतिहास-भूगोल की किताबें,
‘The Hindu’ अख़बार में संपादकीय पढ़ना,
और साथ ही YouTube से मुफ्त लेक्चर देखना।
अब रामू को दिन के 18 घंटे भी कम लगते थे।
दोस्ती और प्रेरणा
कॉलेज में एक दिन नोट्स फोटोकॉपी करवाते वक्त उसकी मुलाकात आयशा नाम की लड़की से हुई। वो भी गरीब तबके से थी, लेकिन पढ़ाई में अव्वल।
आयशा ने रामू की तैयारी देख कर कहा,
“हम जैसे लोग अगर किताबों से दोस्ती नहीं करेंगे, तो ये दुनिया हमें पीछे धकेलती रहेगी।”
धीरे-धीरे आयशा और रामू अच्छे दोस्त बन गए। वो दोनों साथ पढ़ते, चर्चा करते और एक-दूसरे का हौसला बढ़ाते।
आयशा ने रामू को बताया:
“IAS बनना सिर्फ नौकरी नहीं है, ये एक जिम्मेदारी है। सोचो, एक गरीब परिवार से कोई अफसर बनेगा, तो लाखों की आवाज़ बन जाएगा।” ये बात रामू के दिल में बैठ गई।
ज़िम्मेदारी का एहसास इसी दौरान गाँव से खबर आई — रामू के पिता की तबीयत फिर बिगड़ गई। इलाज के लिए पैसे नहीं थे। रामू के पास फीस और किताबों के बाद कुछ नहीं बचता था।
उसने कॉलेज के एक प्रोफेसर से मदद मांगी, जिन्होंने उसकी ईमानदारी देखकर कुछ आर्थिक सहायता दी। रामू ने गाँव जाकर पिता का इलाज करवाया, और वापस आकर फिर से पढ़ाई में जुट गया।
उस रात माँ ने कहा:
“बेटा, तू जो कर रहा है, वो सिर्फ हमारे लिए नहीं… वो उस हर माँ के लिए है जिसका बेटा सपना देखता है लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पाता।”
रामू की आँखें भर आईं। अब उसके पास दो वजहें थीं पढ़ने की —
एक अपना सपना, दूसरा माँ का आशीर्वाद।
पहला UPSC Mock Test
कॉलेज में एक संस्था ने मुफ्त UPSC मॉक टेस्ट आयोजित किया। सैकड़ों छात्र शामिल हुए। रामू ने भी परीक्षा दी।
जब परिणाम आया — रामू पहले स्थान पर था।
कॉलेज में सब चौंक गए। जिन लोगों ने उसका मज़ाक उड़ाया था, अब वही कह रहे थे —
“भाई, तेरा तो दिमाग़ कंप्यूटर है!”
रामू मुस्कुराया, लेकिन अंदर से वह जानता था —
यह जीत सिर्फ मेरी नहीं, मेरी माँ की, श्याम बाबू की, और उस हर रात की थी, जो दीये की लौ के नीचे बीती थी।
"संघर्ष और संघ लोक सेवा आयोग" — रामू अब UPSC की परीक्षा की तैयारी के गंभीर मोड़ पर पहुँचता है, जहाँ असफलता, थकावट और आत्म-संशय उसका रास्ता रोकने की कोशिश करते हैं।
संघर्ष और संघ लोक सेवा आयोग
कॉलेज की पढ़ाई पूरी होने के बाद रामू ने अब अपने जीवन का सबसे बड़ा कदम उठाने का निर्णय लिया — IAS की परीक्षा (UPSC CSE) देने का।
जहाँ बहुत से लोग कॉलेज के बाद नौकरी का रास्ता चुनते हैं, रामू ने संघ लोक सेवा आयोग की तैयारी के लिए पूरा समय देने का फैसला किया।
लेकिन यह रास्ता किसी पहाड़ी यात्रा से कम नहीं था — यह एक मानसिक युद्ध था।
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दिल्ली का सफर
रामू को अपने गाँव और कॉलेज के कई शिक्षकों से सलाह मिली कि अगर सच में सिविल सेवा की तैयारी करनी है, तो दिल्ली के राजेन्द्र नगर या मुखर्जी नगर जाना होगा — जहाँ देशभर से लाखों छात्र आते हैं, IAS बनने का सपना लिए।
लेकिन समस्या यह थी कि रामू के पास ना पैसा था, ना ठिकाना।
माँ ने अपनी एकमात्र सोने की बाली निकालकर कहा:
“ले बेटा, इसे बेच दे… माँ को गहनों की नहीं, तेरे सपनों की ज़रूरत है।”
रामू की आँखें भर आईं। उसने माँ को गले लगाकर कहा:
“माँ, ये कुर्बानी मैं व्यर्थ नहीं जाने दूँगा।”
दिल्ली पहुँचकर वह एक छोटे से कमरे में तीन और छात्रों के साथ किराये पर रहने लगा। गर्मी, भीड़, शोरगुल और तंगी — लेकिन उसका हौसला पहाड़ से भी ऊँचा था।
तैयारी की शुरुआत - रामू ने दिन के 14-16 घंटे पढ़ने का नियम बना लिया। उसका रूटीन कुछ ऐसा था: सुबह 5 बजे उठकर अखबार पढ़ना (The Hindu, Dainik Jagran) 7 से 10 बजे तक NCERT और बेसिक किताबें दोपहर में कोचिंग क्लास या ऑनलाइन लेक्चर शाम को मॉक टेस्ट और उत्तर लेखन अभ्यास (Answer Writing Practice) रात को रिवीजन और दैनिक नोट्स
उसने पोलिटी के लिए M. Laxmikanth, इतिहास के लिए Spectrum, अर्थव्यवस्था के लिए Ramesh Singh और भूगोल के लिए GC Leong की किताबें पढ़नी शुरू कीं।
रामू की सबसे बड़ी ताकत थी — अनुशासन। वह कभी किसी बहकावे में नहीं आया।
मानसिक लड़ाइयाँ
धीरे-धीरे महीने बीतते गए, लेकिन परिणाम नहीं दिखता था। उसके साथी छात्र मॉक टेस्ट में बेहतर अंक ला रहे थे। किसी ने UPSC की प्रीलिम्स निकाल ली, तो कोई इंटरव्यू तक पहुँच गया।
रामू ने जब पहली बार प्रीलिम्स दी, तो वह चंद अंकों से असफल हो गया।
वो रात बहुत भारी थी। उसने माँ को फोन किया और कहा: “शायद मैं इस लायक नहीं हूँ।”
माँ ने शांत स्वर में जवाब दिया: “बेटा, हार तब होती है जब मन मान ले। तू अभी रुका नहीं, थका है — आराम कर, फिर चल पड़।”
श्याम बाबू ने संदेश भेजा: “तेरी हार नहीं हुई बेटा, तेरी परीक्षा हुई है। अगली बार, और मज़बूती से लड़।”
रामू फिर खड़ा हुआ — और इस बार दोगुनी ताकत के साथ।
दूसरी बार की परीक्षा
रामू ने अपनी गलतियों से सीखा। उसने अपनी उत्तर लेखन शैली में सुधार किया, इंटरव्यू के लिए पर्सनैलिटी डेवलपमेंट पर ध्यान दिया, और रणनीति बदली।
अब वो मॉक इंटरव्यू देने लगा
टाइम मैनेजमेंट सीख गया और सबसे अहम — खुद पर विश्वास करना सीख गया
इस बार उसका प्रीलिम्स अच्छा गया। फिर मुख्य परीक्षा (Mains) में उसने ग्रामीण विकास, शिक्षा, महिला सशक्तिकरण, और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर ऐसे उत्तर लिखे जो सीधे दिल को छूते थे।
इंटरव्यू का दिन
फिर आया वह दिन — जिसका सपना रामू ने उस मिट्टी के घर से देखा था।
UPSC भवन, धौलपुर हाउस, दिल्ली
रामू फॉर्मल कपड़ों में, सिर ऊँचा करके इंटरव्यू रूम में गया।
अधिकारियों ने पूछा:
“अगर तुम्हें एक गाँव का कलेक्टर बना दिया जाए, तो सबसे पहले क्या करोगे?”
रामू ने मुस्कुरा कर कहा:
“सबसे पहले गाँव के स्कूल में खुद जाकर पढ़ाऊँगा — ताकि बच्चे सपनों से डरें नहीं, उन्हें गले लगाएँ।”
दूसरा सवाल: “तुम्हारी सबसे बड़ी प्रेरणा कौन है?”
रामू बोला: “मेरी माँ। उन्होंने भूखा रहकर मुझे पढ़ाया — मैं उनका कर्ज़ कभी नहीं चुका सकता।”
पूरा बोर्ड भावुक हो गया। किसी ने कहा —
“बेटा, तुम्हारे जैसे अफसर ही इस देश की उम्मीद हैं।”
परिणाम का दिन
UPSC ने अख़बार में टॉपरों की सूची जारी की। रामू कांपते हाथों से इंटरनेट पर PDF डाउनलोड करता है, रोल नंबर खोजता है… और फिर अचानक… उसकी चीख निकलती है —
“माँ! मेरा नाम है!! मैं पास हो गया!!”
रामू भारत के टॉप 50 उम्मीदवारों में था।
उस दिन उसकी झोपड़ी के आँगन में भीड़ लगी थी। लोग मिठाइयाँ बाँट रहे थे, माँ आरती उतार रही थी, श्याम बाबू की आँखों में आँसू थे।
रामू ने जमीन को छूकर कहा:
“यह मिट्टी ही मेरी माँ है। मैं अब इस देश की सेवा में खुद को अर्पित करता हूँ।”
"जिम्मेदारी का पहला दिन" – रामू बतौर IAS अधिकारी किस तरह अपने पहले ज़िले में कार्यभार संभालता है, और किस तरह आम लोगों के जीवन में बदलाव लाने का कार्य शुरू करता है।
जिम्मेदारी का पहला दिन
UPSC परीक्षा में सफल होकर जब रामू का चयन भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) में हुआ, तो पूरा गाँव, पूरा जिला, और न जाने कितने छोटे-छोटे गाँवों में उम्मीद की एक नई किरण जगी। रामू, जो कभी स्कूल में चप्पल पहनकर आता था, अब सरकार का अधिकारी बन चुका था।
प्रशिक्षण की अवधि
IAS बनने के बाद रामू को मसूरी के लाल बहादुर शास्त्री प्रशासनिक अकादमी में प्रशिक्षण के लिए भेजा गया। वहाँ भारत के कोने-कोने से आए युवाओं से उसकी मुलाकात हुई।
रामू ने वहाँ से बहुत कुछ सीखा:
नीति निर्माण (Policy Making)
ग्राम विकास, स्वास्थ्य, शिक्षा
आपदा प्रबंधन, कानून व्यवस्था
तकनीकी और ई-गवर्नेंस
प्रशिक्षण के दौरान जब रामू ने अपने जीवन की कहानी साझा की, तो सभी अधिकारी trainees भावुक हो गए। उसकी जमीनी समझ और संवेदनशीलता ने सबको प्रभावित किया।
प्रशिक्षण के बाद, रामू को उत्तर प्रदेश के एक पिछड़े ज़िले में बतौर उप-जिलाधिकारी (Sub-Divisional Magistrate - SDM) नियुक्त किया गया।
पहली तैनाती: नई ज़मीन, पुरानी यादें
रामू जब पहली बार अपने कार्यक्षेत्र के सरकारी गेस्ट हाउस में पहुँचा, तो उसे वो रातें याद आईं जब वह बिना बिजली के पढ़ाई करता था। अब वह उस कुर्सी पर बैठने जा रहा था जहाँ से नीतियाँ बनती थीं, फैसले लिए जाते थे, और जहाँ से सिस्टम चलता था।
अपने पहले दिन, रामू ने सबसे पहले अपने पिता का फोटो मेज पर रखा और माँ का आशीर्वाद लिया।
“अब ये कुर्सी किसी राजा की नहीं, जनता के सेवक की होगी।” यह उसकी पहली सोच थी।
पहला दौरा: गाँव की सच्चाई
रामू ने अगले ही दिन बिना किसी औपचारिकता के गाँवों का दौरा शुरू किया।
वह अचानक एक गाँव के प्राथमिक विद्यालय में जा पहुँचा। वहाँ अध्यापक अनुपस्थित थे, बच्चे बिना किताबों के थे, और शौचालय जर्जर हालत में।
गाँव वालों ने चुपचाप खड़े होकर अफसर को देखा। उन्हें लगा, शायद ये भी बाकी अफसरों जैसा है — आएगा, देखेगा, चला जाएगा।
लेकिन रामू ने वही किया जो किसी ने नहीं सोचा था —वह बच्चों के साथ ज़मीन पर बैठ गया और उनसे पूछा:
“बेटा, तुम्हें क्या पढ़ना अच्छा लगता है?”
एक बच्ची बोली — “सर, मुझे भी आप जैसा अफसर बनना है… लेकिन स्कूल में पढ़ाते नहीं हैं।”
रामू का दिल भर आया। उसने तुरंत शिक्षा विभाग को नोटिस भेजा, अनुपस्थित शिक्षक पर कार्रवाई की, और अगले ही हफ्ते उस स्कूल में Digital Learning Kit और पुस्तकें पहुँचाईं।
परिवर्तन की शुरुआत
रामू की सोच सीधी थी — “अगर जनता को बदलाव दिखेगा, तभी व्यवस्था पर विश्वास जगेगा।”
उन्होंने जिला कार्यालय की व्यवस्था सुधारी: अब कार्यालय सुबह 9 बजे से खुलने लगा
हर शिकायत को डिजिटल रूप से रिकॉर्ड किया जाने लगा
हर सप्ताह जन सुनवाई (Public Hearing) आयोजित की जाने लगी
भ्रष्टाचार के खिलाफ गोपनीय जांच टीम बनाई गई
कुछ अफसरों और कर्मचारियों को यह रास नहीं आया। कुछ ने विरोध किया, लेकिन रामू डटे रहे।
“मेरे लिए सत्ता नहीं, सेवा ज़्यादा ज़रूरी है।” — रामू का स्पष्ट संदेश था।
बदलाव की लहर
रामू ने अपने जिले में कुछ नए प्रयोग शुरू किए:
1. "पढ़ो, आगे बढ़ो" योजना – जिसमें गरीब बच्चों को टैबलेट, किताबें और निजी कोचिंग की सुविधा मिली।
2. "एक पेड़, एक ज़िम्मेदारी" मिशन – जहाँ हर नागरिक को अपने बच्चे के नाम एक पेड़ लगाना होता।
3. "जन-फीडबैक पोर्टल" – जहाँ कोई भी व्यक्ति सीधे कलेक्टर को सुझाव दे सकता था।
धीरे-धीरे गाँवों में स्कूलों की उपस्थिति बढ़ी, स्वास्थ्य केंद्रों में दवाइयाँ समय पर पहुँचने लगीं, और राशन प्रणाली में पारदर्शिता आई।
जनता की नज़र में ‘रामू बाबू’
अब लोग रामू को ‘सर’ नहीं, बल्कि प्यार से "रामू बाबू" कहने लगे।
जहाँ पहले अधिकारी गाड़ियों के काफिले के साथ गाँव जाते थे, रामू साइकिल पर जाता।
जहाँ दूसरे अफसर वातानुकूलित कमरों में बैठते, रामू खेतों में किसानों से मिलते।
उसने अपनी माँ के कहे शब्दों को कभी नहीं भूला: “बेटा, ज़मीन से जुड़कर चलोगे, तभी जनता तुम्हें सिर माथे पर बिठाएगी।” एक और संघर्ष: राजनैतिक दबाव
रामू की ईमानदारी और साफ प्रशासन से कुछ स्थानीय नेताओं को परेशानी होने लगी। उन्होंने उस पर दबाव डाला कि वो कुछ मामलों में आँख मूँद ले।
रामू ने विनम्र लेकिन दृढ़ स्वर में कहा: “मैं किसी पार्टी का अफसर नहीं हूँ, मैं इस देश की सेवा में हूँ। मुझे डराओ मत, मेरी माँ ने मुझे निडर बनाया है।” इस जवाब ने सबको चौंका दिया। एक नौजवान अफसर की ऐसी हिम्मत बहुत कम देखने को मिलती थी।
माँ का दौरा
एक दिन रामू ने अपनी माँ को ज़िले में बुलाया। वह उसी मिट्टी से आईं थीं, जहाँ से रामू का सफर शुरू हुआ था। जब माँ कलेक्टर भवन पहुँचीं, तो गेट पर गार्ड उन्हें अंदर नहीं जाने दे रहा था। तभी रामू खुद बाहर आया, माँ के पाँव छुए और उन्हें गले लगाया।
“ये मेरी माँ हैं — जिनके कारण मैं आज यहाँ हूँ। इनसे बड़ा कोई पद नहीं।” पूरा ऑफिस तालियों से गूंज उठा। "जब रामू ने देश को हिला दिया" – रामू एक ऐसी सामाजिक योजना शुरू करता है जो देशभर में चर्चा का विषय बन जाती है, और वह एक राष्ट्रीय प्रतीक बन जाता है।
जब रामू ने देश को हिला दिया
IAS अफसर रामू अब सिर्फ एक जिले का कलेक्टर नहीं था, वह एक प्रेरणा बन चुका था। उसकी नीतियों और फैसलों की गूंज अब राज्य की सीमाओं से निकलकर दिल्ली तक पहुँचने लगी थी।
पर यह सब कुछ अचानक नहीं हुआ — इसकी शुरुआत एक छोटे-से विचार से हुई, जिसने आगे चलकर पूरे भारत को झकझोर कर रख दिया।
समस्या: भूख और गरीबी
अपने जिले में दौरे के दौरान एक दिन रामू ने एक छह साल के बच्चे को कूड़े में से रोटी खोजते हुए देखा। रामू रुक गया, झुककर बच्चे से पूछा: “बेटा, क्या माँ ने खाना नहीं दिया?”
बच्चा बोला, “माँ के पास रोटी नहीं थी... कहती हैं कि आज चूल्हा नहीं जला।”
यह बात रामू के दिल को चीर गई।
वो भूखा बच्चा जैसे उसकी बीते दिनों की परछाईं बन गया था।
उसी रात, रामू ने बैठकर योजना बनाई — “कोई भूखा न सोए” अभियान।
योजना का नाम: “अन्न एक उम्मीद”
रामू की योजना थी कि जिले में जो भी होटल, रेस्टोरेंट, स्कूल, विवाह स्थल, इवेंट्स वगैरह हैं, वहाँ से बचा हुआ साफ़ और ताज़ा भोजन इकट्ठा किया जाए, और फिर उसे ज़रूरतमंदों तक पहुँचाया जाए।
इसके लिए उन्होंने एक डिजिटल ऐप और कॉल सेंटर शुरू किया —
जहाँ कोई भी संस्थान या व्यक्ति भोजन उपलब्ध कराने की सूचना दे सकता था।
रामू ने स्थानीय NGOs, NSS वालंटियर्स, और कई युवाओं को जोड़कर एक भोजन वितरण नेटवर्क खड़ा कर दिया।
“भूखे पेट को रोटी, इज़्ज़त के साथ”
रामू ने इस बात का विशेष ध्यान रखा कि:
भोजन की गुणवत्ता और स्वच्छता बनी रहे
भोजन बेइज़्ज़ती या भिक्षा की तरह न बाँटा जाए
भोजन के साथ सम्मान भी दिया जाए
हर पैकेट पर लिखा होता:
“यह खाना आपके लिए है, देश की ओर से।”
वायरल हो गया रामू का मॉडल
शुरुआत में लोगों को शक था —
"क्या ये सरकारी अफसर दिखावे के लिए कर रहा है?"
लेकिन जब 2 महीने के अंदर ही 10,000 से ज़्यादा लोगों को रोज़ खाना मिलना शुरू हुआ, और दर्जनों भूखे बच्चों की ज़िंदगी में रोशनी आई —
तो मीडिया ने इसे “रामू मॉडल” कहना शुरू कर दिया।
NDTV ने इस पर विशेष रिपोर्ट चलाई
सोशल मीडिया पर हैशटैग #AnnapurnaByRamu ट्रेंड करने लगा
बॉलीवुड से लेकर संसद तक, रामू की प्रशंसा होने लगी
प्रधानमंत्री का कॉल
एक दिन सचिवालय में रामू को एक फोन आया।
उधर से आवाज़ आई —
“प्रधानमंत्री कार्यालय से बोल रहा हूँ, प्रधानमंत्री जी आपसे बात करना चाहते हैं।”
रामू कुछ पल के लिए चुप रह गया।
फोन पर पीएम ने कहा:
“रामू, तुमने जो किया है वो केवल एक जिले का मसला नहीं, पूरे भारत की उम्मीद है। क्या तुम इस मॉडल को राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने का रोडमैप बना सकते हो?”
रामू ने नम्रता से कहा:
“सर, अगर देश का एक बच्चा भी भूखा न सोए, तो ये मेरी सबसे बड़ी जीत होगी।”
नीति आयोग का आमंत्रण
रामू को दिल्ली बुलाया गया। नीति आयोग के सामने उसने पूरा प्रेजेंटेशन दिया:
कैसे बचा हुआ भोजन इकठ्ठा किया जाता है
कैसे डिजिटल मैपिंग से वितरण होता है
कैसे इससे रोजगार और जागरूकता दोनों बढ़ रहे हैं
नीति आयोग ने इस योजना को पायलट स्कीम के रूप में 5 राज्यों में लागू करने का प्रस्ताव रखा।
आलोचना और चुनौतियाँ
जैसे-जैसे रामू का नाम फैलने लगा, कुछ विरोधी अफसर और नेता परेशान हो उठे।
उन्हें डर था कि रामू की लोकप्रियता से उनकी सत्ता की बुनियाद हिल सकती है।
सोशल मीडिया पर फेक आरोप लगाए गए
उसे "लोकप्रियता का भूखा अफसर" कहा गया
कुछ अख़बारों में नकारात्मक लेख छपवाए गए
लेकिन रामू डिगा नहीं।
“सच्चा काम दिखावे से नहीं, असर से पहचाना जाता है।”
उसने सिर्फ इतना कहा।
युवाओं के लिए प्रेरणा
रामू की कहानी अब UPSC और SSC के कोचिंग संस्थानों में बताई जाने लगी।
उसका जीवन उन हज़ारों युवाओं के लिए मशाल बन गया जो ग़रीबी, तंगी और असमानता से लड़ रहे थे। रामू अक्सर कहता: “तुम जहाँ से हो, वो मायने नहीं रखता… तुम क्या बनना चाहते हो, वो सबसे अहम है।” माँ का गर्व
जब राष्ट्रीय चैनलों ने रामू की योजनाओं पर डॉक्युमेंट्री बनाई, तो उसकी माँ को उसमें दिखाया गया।
एक रिपोर्टर ने माँ से पूछा: “क्या आपको गर्व होता है रामू पर?”
माँ मुस्कुराकर बोली: “मुझे गर्व नहीं… चैन है कि अब और कोई बच्चा भूखा नहीं सोएगा।”
अंत में… रामू अब एक प्रशासक से ज़्यादा, एक विचार बन चुका था। उसने यह साबित कर दिया कि एक गरीब किसान का बेटा भी देश को बदल सकता है, बशर्ते उसमें इरादा, मेहनत और सेवा की भावना हो।
"सच्ची सेवा की पहचान" – रामू को केंद्र सरकार में विशेष दायित्व मिलता है, लेकिन अब वह निजी जीवन और जन सेवा के बीच एक बड़ा चुनाव करता है।
सच्ची सेवा की पहचान
रामू अब एक नाम नहीं, एक आंदोलन बन चुका था। जिस बेटे को कभी गाँव के लोग “गरीब का बेटा” कहकर हँसते थे, वही अब IAS अफसर रामू बनकर देशभर में बदलाव का प्रतीक बन चुका था।
दिल्ली बुलावा: नई जिम्मेदारी
एक दिन सचिवालय में बैठे रामू को एक आधिकारिक पत्र प्राप्त हुआ। उसमें लिखा था: "भारत सरकार की ओर से आपको केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय में विशेष सचिव के पद पर नियुक्त किया जाता है। कृपया 15 दिनों में कार्यभार ग्रहण करें।"
रामू के सहकर्मियों ने बधाई दी: “बधाई हो रामू जी! ये तो प्रमोशन से भी बढ़कर सम्मान है।”
लेकिन रामू शांत था… वह जानता था कि यह सिर्फ एक पद नहीं, एक चुनाव है। गाँव या दिल्ली?
रामू के सामने अब दो रास्ते थे:
1. दिल्ली जाएँ और राष्ट्रीय नीति निर्माण में योगदान दें, जहाँ उनके विचार पूरे देश पर लागू होंगे।
2. या गाँव में ही रहकर धरातल पर बदलाव लाएँ, जहाँ वह लोगों के चेहरे पर सीधी मुस्कान देख सके।
रातभर वह सोचता रहा…
उसे अपने शुरुआती दिन याद आए – वो खाली पेट की रातें, माँ की आँखों के आँसू, गाँव का टूटा स्कूल… माँ की सीख फिर याद आई| सुबह रामू ने माँ से बात की।
माँ बोलीं: “बेटा, ऊँचा ओहदा जरूरी नहीं होता, असली ऊँचाई तो वहाँ होती है जहाँ लोग तुम्हें अपना समझते हैं।” रामू ने माँ के पाँव छुए और मुस्कुराया: “माँ, अब जवाब साफ़ है।”
दिल्ली का प्रस्ताव ठुकरा दिया
रामू ने केंद्र सरकार को पत्र लिखा: “मैं सम्मानित हूँ कि मुझे यह अवसर मिला। लेकिन फिलहाल मैं उस ज़मीनी सेवा को अधूरा नहीं छोड़ सकता जहाँ से मेरी यात्रा शुरू हुई। यदि भविष्य में फिर आवश्यकता हो, तो मैं हमेशा देश के लिए उपलब्ध रहूँगा।” पूरा मंत्रालय चौंक गया। ऐसा कम ही देखा गया था कि कोई अफसर राजधानी की कुर्सी छोड़कर गाँव में सेवा करना चुने।
देशभर में चर्चा
रामू के इस निर्णय पर देशभर में चर्चा शुरू हो गई:
अखबारों ने लिखा: “रामू – वो अफसर जिसने पद नहीं, सेवा को चुना।”
सोशल मीडिया पर हैशटैग चला: #SevakNotSahab युवा पीढ़ी के लिए यह एक नई मिसाल बनी:
“Success is not about position, it’s about purpose.”
और भी गहरे परिवर्तन दिल्ली न जाकर, रामू ने अपने जिले में कई नई पहल शुरू की:
1. “नारी सम्मान योजना” – ग्रामीण महिलाओं को स्वरोज़गार और नेतृत्व प्रशिक्षण देना।
2. “ग्राम संसद” – जहाँ गाँव के लोग हर महीने मिलकर अपनी समस्याओं और समाधान पर चर्चा करते।
3. “युवा पंचायत” – युवाओं को प्रशासनिक निर्णयों में भागीदारी देने की पहल।
अब गाँवों के लोग केवल वोट देने वाले नागरिक नहीं थे, बल्कि विकास के साझेदार बन चुके थे।
निजी जीवन और सेवा के बीच संतुलन
इतनी व्यस्तता के बीच रामू के जीवन में एक नई भावना ने दस्तक दी — प्रेम।
रामू को एक महिला अधिकारी, डॉ. नेहा, से लगाव हुआ, जो ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में कार्यरत थी।
नेहा की भी सोच रामू जैसी ही थी — ज़मीनी सेवा, ईमानदारी, और देशप्रेम।
उन्होंने मिलकर एक छोटा-सा फैसला किया — “हमारी शादी किसी होटल में नहीं, गाँव की पाठशाला में होगी — उसी जगह जहाँ से परिवर्तन की शिक्षा मिली।” उनकी सादगी भरी शादी मीडिया की सुर्खियाँ बनी। गाँव में जन्मा, गाँव में रहेगा
रामू ने अब यह तय कर लिया था कि जैसे ही सेवा की अवधि पूरी होगी, वह गाँव लौटकर स्थायी रूप से वहीं रहेगा।
वह कहते थे: “मैं सरकार के लिए काम करता हूँ, लेकिन ज़िंदगी भर जनता का सेवक रहूँगा।”
रामू ने गाँव में एक ‘जन-प्रशिक्षण केंद्र’ बनवाया, जहाँ IAS/IPS की तैयारी करने वाले गरीब बच्चों को निःशुल्क कोचिंग, हॉस्टल और भोजन उपलब्ध करवाया जाता था।
सच्ची सेवा की पहचान
रामू का जीवन अब इस मंत्र का प्रतीक बन गया था: “सत्ता के पास रहकर भी अगर सेवा का भाव ना हो, तो वह सिर्फ शोभा है। लेकिन अगर ज़मीन पर रहकर दिल से सेवा की जाए, तो वह ईश्वर की पूजा है।”
अंत में... रामू ने पद की लालसा को त्यागकर सेवा को चुना। उन्होंने दिखाया कि सच्चा अफसर वो नहीं जो आदेश देता है, बल्कि वो जो जनता की आवाज़ को सुनता है।
वह अब सिर्फ “रामू आईएएस” नहीं था — वह एक आंदोलन, एक प्रेरणा, और करोड़ों युवाओं की उम्मीद बन चुका था। "एक अफसर की अमर कहानी" – रामू रिटायर होने के बाद भी समाज की सेवा करता है और अंततः एक राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित होता है।
एक अफसर की अमर कहानी
वर्षों की सेवा, संघर्ष और सुधारों के बाद, रामू आखिरकार सेवानिवृत्ति की आयु पर पहुँचा। लेकिन उसके भीतर जो सेवा की आग थी, वह कभी ठंडी नहीं हुई। विदाई समारोह – भावनाओं से भरा पल
जिले में रामू के कार्यकाल के अंतिम दिन एक विशेष विदाई समारोह आयोजित किया गया।
हज़ारों लोग उपस्थित थे – किसान, महिलाएँ, बच्चे, छात्र, अफसर, व्यापारी, और वो सब जिनकी ज़िंदगी रामू ने छुई थी। मुख्य मंच से जब रामू बोलने खड़े हुए, तो आँखों में आँसू थे और आवाज़ में विनम्रता: “मैंने कुछ नहीं किया, सिर्फ अपनी माँ की सीख और देश की माटी की पुकार सुनी।
जो कुछ बदला, वो आप सबके साथ की वजह से बदला।” भीड़ से एक बुज़ुर्ग किसान चिल्लाया – “रामू तो अब हमारे गाँव का गांधी है!” और पूरा मैदान तालियों से गूंज उठा। अब सेवा सरकारी नहीं, जनमानस की थी रामू ने रिटायर होते ही किसी सरकारी सलाहकार पद या पुरस्कार का पीछा नहीं किया। बल्कि उसी गाँव में लौट आया जहाँ से उसने शुरुआत की थी। उसने खुद का एक संस्थान शुरू किया –
"जन-प्रेरणा मिशन", जिसका उद्देश्य था: गरीब छात्रों को शिक्षा और कोचिंग महिलाओं को स्वरोज़गार प्रशिक्षण गाँवों में युवा नेतृत्व तैयार करना बदलाव की दूसरी लहर रामू की अगुवाई में:
50 से अधिक गरीब विद्यार्थी UPSC, SSC, और राज्य सेवाओं में चयनित हुए
300 से अधिक महिलाओं ने अपने व्यवसाय शुरू किए
कई गाँवों में पेयजल, स्वास्थ्य और स्कूल की स्थिति में क्रांतिकारी सुधार हुआ
अब लोग रामू को “गुरुजी” कहने लगे थे – क्योंकि वो सिर्फ अफसर नहीं रहे, समाज-निर्माता बन चुके थे। राष्ट्रीय पहचान रामू के योगदानों की चर्चा फिर से दिल्ली पहुँची।
इस बार ना कोई पद था, ना सरकार का आमंत्रण… बल्कि देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान – “पद्मश्री”। राष्ट्रपति भवन में जब रामू को सम्मानित किया गया, तो पूरा देश टीवी पर देख रहा था कि कैसे एक किसान का बेटा देश का हीरा बन चुका था।
अंतिम भाषण – जो इतिहास बन गया
पुरस्कार प्राप्त करने के बाद रामू ने जो शब्द बोले, वो हर युवा के दिल में बस गए: “मैंने कभी सपने में नहीं सोचा था कि एक टूटी झोपड़ी से चला लड़का, एक दिन राष्ट्रपति भवन में खड़ा होगा। लेकिन मैंने कभी हार नहीं मानी… क्योंकि मैंने जाना कि गरीबी एक हालत है, लेकिन हिम्मत एक चुनाव है।”
प्रेरणास्त्रोत बन गया जीवन
रामू के जीवन पर: दो डॉक्युमेंट्री फिल्में बनीं कई स्कूलों में पाठ्यपुस्तक में उनके जीवन पर पाठ जोड़ा गया गाँव के स्कूल का नाम बदलकर रखा गया – “श्री रामू राजकीय इंटर कॉलेज”
अंतिम इच्छा
रामू ने अपने जीवन की अंतिम इच्छा बताई – “मेरे नाम की कोई मूर्ति मत बनाना, बल्कि एक पुस्तकालय बनाना, जहाँ गाँव का हर बच्चा किताबें पढ़ सके।” और सचमुच, उनके गांव में अब एक पुस्तकालय है – “रामू प्रेरणा केंद्र”, जहाँ आज भी बच्चे सपने बुनते हैं। और फिर… एक शांत विदाई
एक दिन रामू शांति से इस दुनिया को अलविदा कह गए। कोई शोर नहीं, कोई तामझाम नहीं। लेकिन उनके जाने के बाद भी, उनका नाम हर गाँव की दीवारों पर, बच्चों के होठों पर और नौजवानों के दिलों में जिंदा रहा। अंत में… रामू का जीवन हमें सिखाता है कि: गरीबी कोई रुकावट नहीं, अगर लक्ष्य सच्चा हो ईमानदारी, मेहनत और सेवा – यही तीन मंत्र किसी को भी अमर बना सकते हैं और सबसे महत्वपूर्ण – “एक अकेला भी बदलाव ला सकता है” रामू अब नहीं हैं, लेकिन उनकी कहानी आज भी हज़ारों युवाओं को आईएएस बनने की हिम्मत देती है। समापन “गरीब का बेटा बना आईएएस अधिकारी” सिर्फ एक कहानी नहीं, भारत के गांवों की असली शक्ति का प्रमाण है।
एक झोपड़ी में जन्मा लड़का, जो कभी टूटी चप्पलों में स्कूल जाता था, आज करोड़ों लोगों के लिए रास्ता बन गया रामू अब नाम नहीं, एक मिशन है।
विरासत जो अमर रहे
रामू अब इस दुनिया में नहीं थे। लेकिन उनके जाने के बाद जो पीछे रह गया, वह सिर्फ यादें नहीं… एक विरासत थी। गाँव की सुबह अब पहले जैसी नहीं थी रामू के जाने के बाद भी गाँव की गलियों में उनकी बातें गूंजती थीं। वह स्कूल जहाँ रामू ने कभी बैठकर पढ़ाई की थी, अब IAS अकादमी में बदल चुका था।
हर सुबह वहाँ के बच्चे प्रार्थना के बाद कहते थे: "मैं रामू जैसा बनूँगा – मेहनती, सच्चा, और जनसेवक।"
प्रेरणा बन गया नाम-रामू के नाम पर: "रामू विकास योजना" – गरीब छात्रों के लिए स्कॉलरशिप
"रामू महिला उद्यमिता मिशन" – ग्रामीण महिलाओं को बिज़नेस शुरू करने के लिए सहायता
"रामू छात्रावास" – दूरदराज के छात्रों के लिए मुफ्त रहने और पढ़ने की सुविधा
यह योजनाएँ सिर्फ नाम से नहीं, भावना से भी जिंदा थीं। हर बच्चे के सपनों में रामू
रामू की कहानी अब पाठ्यपुस्तकों में शामिल थी।
कक्षा 6 से लेकर कक्षा 12 तक, बच्चों को यह पढ़ाया जाता था कि:
“अगर एक गरीब किसान का बेटा IAS बन सकता है, तो कोई भी बच्चा कुछ भी बन सकता है।”
हर साल जब शिक्षक रामू की कहानी पढ़ाते, बच्चों की आँखों में चमक आ जाती थी।
वो पूछते, “क्या हम भी रामू बन सकते हैं?” और उत्तर आता –
“हाँ, अगर तुम भी हार नहीं मानोगे।” रामू के बेटे-बेटियाँ नहीं, शिष्य थे
रामू की कोई संतान नहीं थी, लेकिन उन्होंने हज़ारों बच्चों को सपना देखने की शक्ति दी।
उनके शिष्यों में से: कोई जिला कलेक्टर बना
कोई पुलिस अधीक्षक
कोई ग्राम प्रमुख और कोई सरकारी शिक्षक जिसने रामू जैसे बच्चों को तैयार करने की कसम खाई
इन सभी ने मिलकर एक संकल्प लिया – "हम सब मिलकर रामू की विरासत को ज़िंदा रखेंगे।"
डॉक्यूमेंट्री जो अंतर्राष्ट्रीय बनी
रामू की ज़िंदगी पर बनी डॉक्यूमेंट्री – "From Mud to Medal: The Story of Ramu IAS"
ने अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में पुरस्कार जीता। इस फिल्म को देखकर विदेशों के लोग भारत के गाँवों की असली शक्ति को पहचानने लगे। फिल्म का अंतिम संवाद था: “एक व्यक्ति जो अपने लिए जीता है, वह मर जाता है। लेकिन जो दूसरों के लिए जीता है – वह कभी मरता नहीं।”
प्रेरणा दिवस – हर साल मनाया जाने वाला दिन रामू की जयंती “राष्ट्रीय प्रेरणा दिवस” के रूप में घोषित की गई। हर स्कूल, कॉलेज और पंचायत में उस दिन: बच्चों की निबंध प्रतियोगिता होती
युवाओं के लिए प्रेरणात्मक भाषण गाँव-गाँव में ‘रामू यात्रा’ निकाली जाती, जहाँ लोग उनके मूल्यों को साझा करते
एक सपना जो चलता रहा रामू की याद में बने पुस्तकालय, कोचिंग सेंटर, और प्रशिक्षण केंद्रों में आज भी हज़ारों छात्र-छात्राएँ मेहनत करते हैं। वे जानते हैं कि यह सिर्फ ईमारतें नहीं, बल्कि उस सपने का विस्तार हैं जो रामू ने देखा और पूरा किया।
रामू की आखिरी चिट्ठी
रामू ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में एक पत्र लिखा था, जिसे उनकी मृत्यु के बाद सार्वजनिक किया गया। उसमें लिखा था: "अगर मेरी कहानी किसी एक बच्चे को हारने से रोक सके, तो मैं सफल हूँ। अगर मेरी यात्रा से कोई किसान अपने बेटे को पढ़ने भेज सके, तो मैं अमर हूँ। मैं एक अफसर नहीं था – मैं सिर्फ एक बेटा था, इस देश की मिट्टी का।" अंत में…
रामू की कहानी अब किस्सों में नहीं, कामों में जीवित है।
वह हर उस मुस्कुराहट में है जो एक गरीब बच्चा परीक्षा पास करने के बाद लाता है।
वह हर उस चप्पल में है जो किसी बच्चे को स्कूल तक ले जाती है।
वह हर उस माँ की आँखों में है, जो अपने बेटे को यह कहती है –
"तू भी रामू बन सकता है बेटा!"
अंतिम पंक्तियाँ
"गरीबी से उठा बेटा, जिसने सपनों को पंख दिए,
नाम नहीं, काम से बड़ा बना, वो रामू – भारत की सच्ची कहानी बन गया।"