"कोई बड़ी बात नहीं" ( "No big deal")
👉नेहा का संसार
लखनऊ की पुरानी गलियों में बसा था नेहा का घर। न बहुत बड़ा, न बहुत छोटा। दीवारों पर पुराना चूना, दरवाज़ों के पल्लों से झाँकता वक़्त, और खिड़कियों से टपकती रोशनी — सबकुछ एक तरह से घर के अंदर की ज़िंदगी का अक्स दिखाते थे।
नेहा की उम्र पच्चीस के करीब थी। रंग साँवला, कद मध्यम, आँखों में गहराई थी — वो गहराई जो संघर्षों में पनपती है। वह परिवार की बड़ी संतान थी। पापा सरकारी दफ्तर में क्लर्क थे, जिनकी तनख्वाह महीने के तीसरे हफ्ते तक ही सांसें लेती थी। माँ, स्नेह और त्याग की मूर्ति, घर संभालतीं और बच्चों के सपनों को सींचतीं।
नेहा के दो छोटे भाई थे — रोहित और अमन। रोहित इंटर में था और अमन अभी स्कूल में। घर में पढ़ाई की बात हो या रसोई के बर्तन, नेहा हर मोर्चे पर डटी रहती।
कॉलेज से बी.ए. की डिग्री ले चुकी थी वह। हिंदी साहित्य उसकी रुचि भी थी और आश्रय भी। उसके कमरे में एक पुराना बुकशेल्फ था जिसमें प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ की किताबें करीने से लगी थीं। किताबों से उसका रिश्ता गहरा था — जैसे दोस्त हों जो शिकायतें नहीं करते।
संघर्ष की शुरुआत
नेहा को पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी की तलाश थी। कॉलेज के आखिरी दिन उसे लगा था कि अब दुनिया बदलने वाली है — लेकिन बदली नहीं।
हर रोज़ अख़बार में "जॉब सेक्शन" को पढ़ती, ऑनलाइन वेबसाइट्स पर रिज़्यूमे भेजती। लेकिन ज़्यादातर जगह से कोई जवाब नहीं आता, और जहाँ बुलावा आता, वहाँ इंटरव्यू सवालों से कम, शक से ज़्यादा भरे होते।
एक बार एक कंपनी ने बुलाया था। इंटरव्यू में पूछा गया —
"आपने अब तक कुछ जॉब क्यों नहीं की?"
नेहा ने ईमानदारी से कहा, "मौके नहीं मिले।"
उत्तर सुनते ही चेहरा घुमा लिया गया था। बाहर आकर उसने लंबी साँस ली थी और खुद से कहा था —
"कोई बड़ी बात नहीं..."
👉माँ की ममता
नेहा की माँ सरोज देवी को बेटी पर गर्व था, लेकिन समाज की बातें उन्हें परेशान करती थीं।
"कब तक घर बैठेगी नेहा? कोई रिश्ता भी नहीं आ रहा। लड़की की शादी की भी तो चिंता करनी होती है..."
रिश्तेदारों की आवाजें उनके कानों में गूंजतीं।
नेहा सब सुनती थी। कभी-कभी माँ की आँखों में देखती — वहाँ प्यार था, चिंता थी, और एक छुपा डर भी।
एक दिन माँ ने कहा —
"नेहा, किसी स्कूल में पढ़ाने की कोशिश क्यों नहीं करती?"
नेहा मुस्कुराई, बोली —
"कर रही हूँ माँ, शायद अगले हफ्ते इंटरव्यू है।"
माँ ने माथे पर हाथ फेरते हुए कहा —
"सब ठीक होगा, बेटा। भगवान पर भरोसा रखो।"
नेहा ने अंदर से कहा —
"हां माँ, कोई बड़ी बात नहीं।"
👉नेहा का एक दिन
सुबह 6 बजे उठकर चाय बनाना, भाइयों का टिफिन, पापा के कपड़े प्रेस करना — दिन की शुरुआत ऐसे ही होती।
दिन में दो घंटे खुद की पढ़ाई, फिर कुछ समय ऑनलाइन फॉर्म भरने में बीतता। जब भाई स्कूल से आते, तो उनका होमवर्क भी करवाती। रात को माँ के साथ रसोई में मदद करती।
हर दिन कुछ बदलता नहीं था। पर नेहा ने कभी शिकायत नहीं की।
कभी-कभी पड़ोस की लड़कियाँ कहतीं —
"नेहा, तुझमें टैलेंट है यार, तुझे कहीं और होना चाहिए..."
नेहा हँस देती —
"शायद... लेकिन फिलहाल तो यही है।"
👉पड़ोस की आवाजें
रोज़ शाम को जब वह छत पर जाती, तो सामने वाले मकान से आती विमला आंटी की आवाजें सुनाई देतीं।
"हमारे विनय ने तो कनाडा में जॉब पकड़ ली! कितनी मेहनत की थी उसने... लड़कों में तो हौसला होता है।"
नेहा सब सुनती। कभी-कभी चुपके से मुस्कुरा देती।
एक दिन विमला आंटी की बेटी ने कहा —
"नेहा दीदी, आप क्या कर रही हैं इन दिनों?"
नेहा ने सीधे जवाब नहीं दिया। बस इतना कहा —
"खुद को समझ रही हूँ। कोई बड़ी बात नहीं है न?"
👉अकेलापन
रातें नेहा के लिए कठिन होती थीं। जब सब सो जाते, वह छत पर बैठकर आसमान देखती। कभी तारों से बातें करती, कभी खुद से।
कभी आँसू निकल आते, कभी मुस्कान।
लेकिन हर बार वही वाक्य उसे फिर जीने की ताकत देता —
"कोई बड़ी बात नहीं।"
👉एक साधारण दिन की गहराई
ऐसे ही एक दिन, जब नेहा थकी हुई थी, माँ ने उसके पास बैठकर उसका हाथ थामा और कहा —
"बेटा, तू जो कर रही है न, वो सबके बस की बात नहीं। लोग तो बाहर दिखते चमकते हैं, पर अंदर से खोखले होते हैं। तू अपने अंदर की आवाज़ सुन।"
नेहा ने माँ की आँखों में देखा और खुद को थोड़ा और मजबूत पाया।
👉उस दिन नेहा की डायरी में लिखा गया:
“मैं रोज़ एक लड़ाई लड़ती हूँ — खुद से, हालात से, दुनिया से।
लेकिन हर बार जब मैं हारती हूँ, मैं खुद से कहती हूँ —
‘कोई बड़ी बात नहीं।’ और यही बात, मुझे अगली सुबह फिर खड़ा कर देती है।”
👉 रिश्तेदारों की बातें
(नेहा की बहन की शादी, समाज के तानों, और आत्मसम्मान की अग्निपरीक्षा की शुरुआत)
बातों की चुभन
नेहा की जिंदगी अब एक जानी-पहचानी लय में चल रही थी — सुबह काम, दिनभर नौकरी की तलाश, शाम को घर के काम और रात को खुद से संवाद।
लेकिन जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जा रही थी, समाज की आवाजें तेज़ होने लगी थीं।
एक दिन मौसी आई थीं। चाय की चुस्की के साथ सवाल फेंका गया —
“नेहा की शादी के बारे में क्या सोचा है?”
माँ ने धीमे से जवाब दिया, “देख रहे हैं... बस कोई ठीक सा लड़का मिल जाए।”
मौसी ने भौंहे चढ़ाईं, “लड़की की उम्र हो रही है। कहीं बाद में पछताना न पड़े।”
नेहा अंदर कमरे में बैठी सब सुन रही थी। हर बार की तरह उसकी आत्मा पर चोट हुई, लेकिन चेहरा वही शांत रहा।
👉छोटी बहन की सगाई
घर में एक दिन अचानक खुशखबरी आई — नेहा की छोटी बहन रचना के लिए अच्छा रिश्ता आया था। लड़का इंजीनियर था, सरकारी नौकरी में। परिवार अच्छा, सुलझा हुआ।
सभी बहुत खुश थे।
माँ, थोड़ी असमंजस में थीं। बोलीं, “बड़ी की शादी नहीं हुई है... लोग क्या कहेंगे?”
पापा ने धीरे से कहा, “किसी की खुशी रोकना सही नहीं। नेहा तो समझदार है।”
रचना भी शर्माते हुए नेहा के पास आई। बोली, “दीदी... तुम बुरा मत मानना, प्लीज़...”
नेहा ने उसकी हथेली थामकर मुस्कुरा दिया, “पगली! तू खुश है, यही मेरे लिए बड़ी बात है।”
और फिर चुपचाप कमरे से निकल गई। बालकनी में जाकर आसमान की तरफ देखा, जैसे खुद को समझा रही हो —
“कोई बड़ी बात नहीं।”
👉शादी की तैयारियाँ और नेहा की भूमिका
रचना की शादी की तैयारियाँ ज़ोर-शोर से चलने लगीं। नेहा पूरे मन से जुट गई — गहनों की लिस्ट, मेहमानों के फोन, दहेज का हिसाब-किताब, कपड़ों की खरीदारी... हर चीज़ में सबसे आगे।
पर कुछ रिश्तेदारों की ज़बान ने उसे चैन से काम नहीं करने दिया।
“नेहा अब तक बैठी है, और छोटी बहन की शादी हो रही है?”
“कुछ बोलती ही नहीं लड़की, आजकल तो लड़कियाँ खुद रिश्ता ढूंढ लेती हैं।”
“कहीं कुछ कमी तो नहीं है...?”
नेहा हर बात सुनती रही। कई बार उसकी आँखें नम हो जातीं। माँ की नज़रों से यह छिपा नहीं था।
एक दिन माँ ने पूछा —
“नेहा, तू ठीक है ना?”
नेहा ने मुस्कुराकर कहा —
“माँ... कोई बड़ी बात नहीं।”
👉मेजबान की बेटी
शादी का दिन नज़दीक आया। नेहा सबको संभाल रही थी — किसी को पानी चाहिए, किसी का रूम तय नहीं हुआ, किसी के गहने गायब हो गए, किसी की चप्पल। नेहा हर जगह दौड़ रही थी।
बारात आई। ढोल-नगाड़ों की आवाज़, फूलों की खुशबू, और हर चेहरे पर चमक।
दुल्हन बनी रचना जब स्टेज पर बैठी, तो कई नजरें नेहा की ओर मुड़ीं।
किसी ने कानाफूसी की —
“मेजबान की बेटी खुद कुंवारी है। क्या बात है!”
नेहा सब देख रही थी। वह जानती थी कि लोग उसे दया या तंज की नजर से देख रहे हैं।
पर उसने खुद को फिर वही दो शब्दों से संभाला —
“कोई बड़ी बात नहीं।”
👉रात की चुप्पी और डायरी का पन्ना
शादी निपट गई। रचना विदा हो गई। घर में एक अजीब सन्नाटा छा गया।
रात को नेहा अपने कमरे में बैठी, थकी, लेकिन बेचैन। उसने अपनी डायरी खोली और लिखा:
“आज सब खुश थे — माँ, पापा, रचना। मैं भी थी। पर फिर भी, एक कोना ऐसा था दिल में... जहाँ सूनापन था।
कुछ रिश्ते जन्म से होते हैं, कुछ समाज गढ़ता है।
पर सबसे कठिन रिश्ता वो होता है — जो इंसान खुद से निभाता है।
और इस रिश्ते में जब मैं खुद से कहती हूँ — ‘कोई बड़ी बात नहीं’,
तो लगता है जैसे खुद को धोखा दे रही हूँ।
लेकिन शायद यही धोखा ही आज मेरी ताकत बन गया है।”
👉रचना की विदाई के बाद
कुछ हफ्ते बीते। घर में फिर वही लय आ गई। पर रचना की कमी ने सबको थोड़ा खाली कर दिया था।
एक दिन रचना का फोन आया। बात करते-करते बोली —
“दीदी, मेरी एक दोस्त की स्कूल में वैकेंसी निकली है। मैं उसका रिज़्यूमे भेज दूँ क्या?”
नेहा चौंकी नहीं। बस मुस्कुराकर बोली —
“हां, भेज दे। कोशिश में क्या जाता है?”
अगले मोड़ की दस्तक
नेहा ने कुछ दिन बाद इंटरव्यू दिया — पास भी हो गई। एक प्राइवेट स्कूल में हिंदी टीचर के तौर पर जॉइन करने का मौका मिला।
पहली सैलरी 12,000 रुपये की थी।
किसी ने कहा, “इतने में क्या होगा?”
नेहा ने फिर वही जवाब दिया —
“कोई बड़ी बात नहीं... शुरुआत है।”
नेहा ने अपनी दुनिया को समाज की आवाज़ों में दबने नहीं दिया। तानों और सवालों के बीच उसने खुद को चुपचाप खड़ा रखा — जैसे कोई पेड़ आँधी में झुकता है, गिरता नहीं।
कभी-कभी शब्द एक ढाल बन जाते हैं, और नेहा के लिए वह ढाल था —
“कोई बड़ी बात नहीं।”
👉 संकट की घड़ी
(जहाँ नेहा के जीवन में अचानक एक बड़ा मोड़ आता है — नौकरी में अपमान, और आत्मसम्मान की असली लड़ाई)
👉नई शुरुआत की ख़ुशी
नेहा की जिंदगी में एक नई रोशनी आई थी — स्कूल में टीचर की नौकरी।
सुबह की भागदौड़ अब किसी उद्देश्य से जुड़ गई थी।
पहली बार जब उसने क्लास में कदम रखा, बच्चों की मासूम आँखों ने उसे एक नई दुनिया से जोड़ा।
हिंदी पढ़ाना उसके लिए सिर्फ नौकरी नहीं थी, आत्मा का विस्तार था।
पहले महीने की सैलरी जब हाथ में आई, तो नेहा ने सबसे पहले माँ के पैर छुए और पापा को मिठाई दी।
पापा ने हँसकर कहा —
“हमारी बिटिया तो कमाने लगी!”
माँ ने आँखें पोंछते हुए बस यही कहा —
“कोई बड़ी बात नहीं... तू तो बहुत आगे जाएगी।”
👉सहकर्मियों की राजनीति
हर जगह अपनी राजनीति होती है — स्कूल भी इससे अछूता नहीं था।
नेहा मेहनत से काम करती थी — समय से आती, पढ़ाने के तरीके नए लाती, बच्चों को कहानी के माध्यम से समझाती।
धीरे-धीरे बच्चों और उनके अभिभावकों में उसकी पहचान बनने लगी।
यही बात कुछ पुराने शिक्षकों को खलने लगी।
खासकर स्कूल की सीनियर टीचर — मालविका मैडम।
एक दिन स्टाफ रूम में उन्होंने तीखे स्वर में कहा —
“नई-नई टीचर्स को लगता है वो ही सब जानती हैं। बच्चों का मन बहलाना पढ़ाना नहीं होता।”
नेहा चुप रही। लेकिन उसे समझ आ गया था कि सबको उसकी मेहनत रास नहीं आ रही।
👉पहला अपमान
एक दिन प्रिंसिपल के सामने एक मीटिंग में मालविका मैडम ने आरोप लगाया —
“नेहा मैडम ने बच्चों को होमवर्क की जगह कहानियाँ सुनाकर टाइम पास किया। उनके सेक्शन का रिज़ल्ट बाकी से कमजोर आया है।”
प्रिंसिपल ने बिना पूरी जांच किए कहा —
“अगर आप सीरियस नहीं हैं तो हमें ऐसे लोग नहीं चाहिए।”
नेहा को कुछ कहने का मौका तक नहीं मिला। उसकी आँखें भर आईं।
शाम को वह घर लौटी, माँ ने देखा कि चेहरा उतरा हुआ है।
पूछने पर नेहा ने कहा —
“कभी-कभी सच्ची मेहनत को भी शक की नजर मिलती है माँ...”
माँ ने गले लगाकर कहा —
“मत डगमगाना बेटा... ये तूने चुना है। लड़ना पड़ेगा।”
नेहा ने खुद से दोहराया —
“कोई बड़ी बात नहीं... मैं खुद को जानती हूँ।”
👉संकट और आत्मसम्मान
नेहा ने अगले हफ्ते अपनी मेहनत का हर प्रमाण इकट्ठा किया — बच्चों की कॉपियाँ, अभिभावकों की सराहना के पत्र, और बच्चों की बनाई कहानियाँ।
उसने प्रिंसिपल से समय मांगा और कहा —
“सर, जो कहा गया, वो गलत है। कृपया मेरी बात सुनी जाए। मैं सबूत लायी हूँ।”
प्रिंसिपल ने अनमने भाव से सुना, और अंत में कहा —
“ठीक है, इस बार छोड़ते हैं, लेकिन आगे से सावधान रहिए।”
नेहा बाहर निकली। राहत थी — पर अपमान की टीस अब भी भीतर थी।
उसने सोच लिया था — वह अब खुद को इतना मजबूत बनाएगी कि किसी को उस पर ऊँगली उठाने का मौका ही न मिले।
👉डायरी का नया पन्ना
उस रात नेहा ने अपनी डायरी में लिखा:
“कभी-कभी इंसान हारता नहीं है, बस थक जाता है।
लेकिन थकने और झुकने में फर्क होता है।
मैं थक सकती हूँ, पर झुकूँगी नहीं।
क्योंकि मैं जानती हूँ — मैं क्या हूँ।
और अगर पूरी दुनिया कहे कि मैं गलत हूँ,
तो भी मैं खुद से कहूँगी —
‘कोई बड़ी बात नहीं।’”
बदलाव की शुरुआत
नेहा ने अब और ज़्यादा मेहनत करनी शुरू की।
हर क्लास को और दिलचस्प बनाया। बच्चों की प्रोजेक्ट फाइल्स बनाई, कहानी प्रतियोगिता शुरू करवाई, और स्कूल की पत्रिका के लिए “हिंदी कविता कॉलम” की शुरुआत की।
धीरे-धीरे उसके काम की गूंज स्कूल में सुनाई देने लगी।
इस बार जब फाइनल रिज़ल्ट आया, नेहा के सेक्शन का प्रदर्शन सबसे बेहतर था।
प्रिंसिपल ने स्टाफ मीटिंग में सबके सामने कहा —
“नेहा मैडम ने उम्मीद से बढ़कर काम किया है। इनसे बाकी भी कुछ सीख सकते हैं।”
मालविका मैडम चुप थीं। अबकी बार उनके पास कहने को कुछ नहीं था।
👉अभिमान नहीं, आत्म-सम्मान
नेहा के अंदर कोई अहंकार नहीं आया। सिर्फ एक संतोष था —
कि जो सच था, वो आखिरकार साबित हुआ।
एक दिन एक जूनियर टीचर उसके पास आई और बोली —
“मैम, आपसे बहुत प्रेरणा मिलती है। आप इतने अपमान के बाद भी कैसे शांत रहीं?”
नेहा ने मुस्कुरा कर कहा —
“हर बार लड़ने से अच्छा है, खुद को इतना साबित करो कि जवाब की ज़रूरत ही न पड़े। और जब तक खुद पर भरोसा है, तब तक दुनिया की बातों से फर्क नहीं पड़ता।”
फिर उसने वही वाक्य दोहराया —
“कोई बड़ी बात नहीं।”
नेहा के जीवन का यह अध्याय संघर्ष और आत्मसम्मान की लड़ाई का था।उसने साबित किया कि आत्मा की सच्चाई अगर अडिग हो, तो झूठ की दीवारें देर-सबेर गिर ही जाती हैं।जहाँ औरों ने कहा — “यह क्या कर पाएगी?”,नेहा ने जवाब दिया —
“कोई बड़ी बात नहीं।”
एक नई राह
(जहाँ नेहा को एक ऐसा प्रस्ताव मिलता है जो उसकी जिंदगी बदल सकता है — लेकिन साथ ही, वह उसे अपने परिवार और सपनों के बीच एक कठिन चुनाव के मोड़ पर भी लाकर खड़ा करता है)
👉हर सुबह अब उम्मीद जैसी लगती थी
अब नेहा की ज़िंदगी में स्थिरता आ गई थी — एक पहचान, एक सम्मान, और बच्चों में अपना अक्स।
स्कूल के स्टाफ रूम में अब उसके लिए आदर का भाव था। पहले जो आँखें उस पर संदेह करती थीं, अब वही आँखें उसके अनुभव से सलाह माँगती थीं।
एक दिन स्कूल के एक अभिभावक — अविनाश मेहरा, जिनकी बेटी नेहा की क्लास में थी — उससे मिले।
"मैम, आपकी पढ़ाई की शैली बहुत प्रभावशाली है। मेरी बेटी हिंदी से डरती थी, अब कविता लिखने लगी है।"
नेहा ने मुस्कुरा कर धन्यवाद कहा।
अविनाश ने आगे कहा —
"मैं एक NGO चलाता हूँ जो ग्रामीण इलाकों में शिक्षा पर काम करता है। हम एक नई परियोजना शुरू कर रहे हैं — 'कहानीघर'। इसमें हम गांवों में जाकर बच्चों को संवाद, भाषा और रचनात्मक लेखन सिखाएंगे। हमें आपकी जैसी टीचरों की ज़रूरत है। क्या आप इंटरेस्टेड होंगी?"
👉सपने की दस्तक
उस रात नेहा सोच में डूब गई।
उसने हमेशा से कुछ ऐसा ही चाहा था — जहाँ शिक्षा सिर्फ किताबों तक सीमित न हो, जहाँ बच्चों की सोच को पंख मिलें।
पर यह प्रोजेक्ट 6 महीने के लिए था — दूरदराज के गाँवों में।
इसका मतलब था — स्कूल छोड़ना, घर से दूर रहना, और शायद किसी स्थायित्व का त्याग करना।
माँ को बताया, तो वो चिंतित हो गईं।
“गाँव-देहात में रहना, वो भी अकेली लड़की के लिए... और ये नौकरी भी तो नहीं रहेगी फिर।”
पापा शांत थे। बस बोले —
“सोच समझ कर फैसला लेना बेटा।”
👉रचना की सलाह
नेहा ने रचना को फोन किया। सारी बात बताई।
रचना ने बिना रुके कहा —
“दीदी, तू हमेशा दूसरों को रास्ता दिखाती है। अब वक्त है खुद के सपने को सच करने का।
कभी-कभी स्थायित्व छोड़ने में ही असली स्थिरता मिलती है।"
नेहा की आँखें भर आईं। इतनी सादगी से उसे समझा दिया गया था जो वह खुद नहीं समझ पा रही थी।
👉नौकरी छोड़ना — एक फैसला
नेहा ने स्कूल में इस्तीफा दिया।
प्रिंसिपल ने पूछा —
“कहीं और नौकरी मिल गई है?”
नेहा ने जवाब दिया —
“हां... लेकिन पैसे के लिए नहीं, पैशन के लिए।”
स्टाफ ने विदाई में ताली बजाई। मालविका मैडम ने भी कहा —
“आपने जो किया, उसके लिए हिम्मत चाहिए।”
नेहा ने विनम्रता से जवाब दिया —
“कोई बड़ी बात नहीं।”
गांवों की गलियाँ और बच्चों की आंखें
'कहानीघर' प्रोजेक्ट के साथ नेहा का नया सफर शुरू हुआ।
हर हफ्ते वह एक नए गाँव जाती — कहीं पक्की सड़कें नहीं थीं, कहीं स्कूल की छत नहीं थी।
पर जहाँ भी जाती, बच्चों की आँखों में चमक देखती।
वह कहानी सुनाती — कभी पंचतंत्र की, कभी अपनी खुद की लिखी।
बच्चे रंगों से खेलते, शब्दों से सपने बुनते।
नेहा को लगता जैसे वह जी रही है — पहली बार, पूरी तरह।
👉अचानक एक मोड़
एक दिन एक गाँव में लौटते वक्त जीप पलट गई।
नेहा को सिर पर चोट आई। कुछ दिन अस्पताल में रहना पड़ा।
अविनाश और NGO के लोग बहुत सहयोगी थे, पर माँ-पापा घबरा गए।
माँ रोती हुई बोलीं —
“अब बस कर बेटा, तू जो कर रही है उसमें कितना खतरा है... तू घर वापस आ जा।”
नेहा कुछ नहीं बोली। वह समझ गई थी — माँ डर गई हैं।
👉भीतर की लड़ाई
नेहा अब दो राहों पर खड़ी थी —
एक तरफ उसकी माँ की चिंता और घर का सुकून,
दूसरी तरफ उसका सपना और उसका उद्देश्य।
उसने फिर अपनी डायरी उठाई और लिखा:
“हर बार जब मैं कुछ बड़ा करती हूँ, कोई न कोई डर सामने आ जाता है।
इस बार ये डर अपनों का है — उनकी आँखों में मेरी चिंता, मेरी सुरक्षा की फिक्र।पर क्या मैं खुद से मुँह मोड़ लूँ?
या फिर उन्हें विश्वास दिला पाऊँ कि जो मैं कर रही हूँ, वह सिर्फ मेरा नहीं — समाज का सपना भी है?शायद मुझे फिर वही कहना पड़ेगा —
‘कोई बड़ी बात नहीं।’”
फैसला — समझौतों से नहीं, समझ से
नेहा ने माँ से कहा —
“माँ, मैं अब वापस नहीं आऊंगी — अभी नहीं।
पर मैं वादा करती हूँ, संभल कर रहूंगी।
और अगर कभी लगा कि अब रुकना चाहिए, तो सबसे पहले घर आऊंगी।”
माँ ने कुछ नहीं कहा। बस उसे गले से लगा लिया।
नेहा ने चुनौतियों को स्वीकार किया, डर को समझा, और सपनों को जिया।हर बार जब जीवन ने उसे एक और विकल्प दिया — वह ठिठकी, लेकिन रुकी नहीं। जहाँ लोग डर कर कह देते —
“इतना क्यों कर रही हो?”,
नेहा बस मुस्कुरा कर कहती —
“कोई बड़ी बात नहीं।”
👉चुनौती का पुरस्कार
(जहाँ नेहा को उसकी मेहनत और साहस का वह फल मिलता है जिसकी वह हकदार थी — एक राष्ट्रीय पहचान, लेकिन साथ ही, कुछ और गहरे सवाल)
👉कहानीघर की उड़ान
अब 'कहानीघर' प्रोजेक्ट को चार महीने हो चुके थे। नेहा 15 गाँवों में पढ़ा चुकी थी, सैकड़ों बच्चों को सिखा चुकी थी — शब्दों से दोस्ती करना, कल्पनाओं को आकार देना और अपनी आवाज़ को पहचानना।
बच्चे उसे "नेहा दीदी" नहीं, "कहानी वाली दीदी" कहते थे।
जहाँ पहले बच्चों की आँखें खाली थीं, अब वहाँ सपने उगने लगे थे।
गाँवों की दीवारों पर बच्चों की कविताएँ और चित्र टँगे थे।
उन गाँवों के मुखिया कहते —
“पहली बार बच्चों की आँखों में उम्मीद दिखी है।”
👉NGO की रिपोर्ट और मीडिया की नज़र
अविनाश मेहरा ने 'कहानीघर' की एक वार्षिक रिपोर्ट बनाई और दिल्ली के एक बड़े सामाजिक मंच — "India Youth Impact Conference" — में प्रस्तुत की।
रिपोर्ट में नेहा के काम को केंद्र में रखा गया था —
"किसी एक शिक्षक की सोच कैसे सैकड़ों बच्चों की ज़िंदगी बदल सकती है।"
कार्यक्रम में नेहा को बुलाया गया। पहली बार वह मंच पर बोलने जा रही थी — सैकड़ों लोगों के सामने।
दिल्ली की शाम, नेहा का नाम
नेहा मंच पर पहुँची। माइक के सामने खड़ी हुई।
थोड़ा कांपी, फिर गहरी साँस ली।
“नमस्ते। मेरा नाम नेहा है। मैं लखनऊ की एक साधारण लड़की हूँ।
लेकिन जब मैंने किताबों में पढ़ी कहानियों को बच्चों की ज़िंदगी से जोड़ा —
तो मुझे अहसास हुआ कि शब्द सिर्फ पढ़ाए नहीं जाते, जिए भी जाते हैं।
और यहीं से शुरू हुआ — 'कहानीघर'।”
सुनते ही पूरा हाल तालियों से गूंज गया।
👉पुरस्कार और पहचान
कार्यक्रम के अंत में "यंग एजुकेटर ऑफ द ईयर" का अवॉर्ड घोषित हुआ।
घोषणा हुई —
“This year’s Young Educator Award goes to... Ms. Neha Sharma, for her exceptional contribution in rural education through creativity and storytelling.”
नेहा मंच पर पहुँची। आंखें नम थीं, पर चेहरा शांत।
जब ट्रॉफी उसके हाथ में आई, तो मन में सबसे पहला ख्याल था —
माँ। पापा। और वो पुरानी खिड़की, जहाँ बैठकर उसने खुद को समझाया था —
'कोई बड़ी बात नहीं।'
👉अखबारों में नाम, घर में मुस्कान
अगले दिन नेहा की फोटो अख़बारों में छपी।
“कहानी वाली नेहा” — ऐसा शीर्षक था।
पड़ोस की विमला आंटी जो पहले ताने देती थीं, अब कह रही थीं —
“अरे नेहा तो हमारे मोहल्ले का नाम रौशन कर रही है!”
पापा ने वह अख़बार फ्रेम करवा दिया।
माँ ने नेहा को कसकर गले लगाया —
“अब कहूँ? बहुत बड़ी बात है ये।”
नेहा मुस्कुराई —
“हाँ माँ… पर बड़ी बात ऐसे ही बनती है —
जब कोई बार-बार कहता रहे, 'कोई बड़ी बात नहीं।’”
👉रचना की खुशखबरी
कुछ दिन बाद रचना का फोन आया।
“दीदी, मैं माँ बनने वाली हूँ!”
नेहा की आँखें भर आईं।
“तू माँ बनेगी, और मैं मौसी!”
रचना बोली —
“तेरे जैसे मजबूत इंसान की मौसी बनना, बच्चे का सौभाग्य होगा।”
👉अचानक फिर एक परीक्षा
खुशियों के बीच ज़िंदगी फिर एक नई चुनौती लेकर आई।
NGO के भीतर कुछ प्रशासनिक बदलाव हुए।
‘कहानीघर’ का फंड रोक दिया गया।
अविनाश ने नेहा से कहा —
“कुछ समय तक काम रोकना पड़ेगा... शायद स्थायी रूप से भी।”
नेहा स्तब्ध रह गई। वह सोच भी नहीं सकती थी कि जिस काम में उसने आत्मा झोंकी, वह ऐसे अचानक रुक सकता है।
👉वापसी का समय?
पापा बोले —
“अब लौट आ नेहा... इस बार तेरी कोशिश में कोई कमी नहीं रही। शायद अब वक्त है थोड़ा ठहरने का।”
नेहा कुछ नहीं बोली।
वह उसी खिड़की के पास बैठ गई — जहाँ से उसने सफ़र शुरू किया था।
वहीं अपनी डायरी में लिखा:
“क्या हर कहानी का अंत जरूरी है?
या कुछ कहानियाँ सिर्फ दिशा देने आती हैं?मैं जानती हूँ — 'कहानीघर' सिर्फ एक प्रोजेक्ट नहीं था, वह मेरी आत्मा थी।
और आत्मा को कोई बंद नहीं कर सकता।इस बार मैं कहती हूँ —
‘कोई बड़ी बात नहीं... मैं फिर से शुरू करूँगी।’”
नई योजना — अपनी संस्था
नेहा ने फैसला किया — अब वह खुद की एक छोटी संस्था शुरू करेगी, “बोलती किताबें” के नाम से।
शुरू में उसने अपनी बचत से दो गाँवों में सेंटर खोले।
पुरानी दोस्त, कॉलेज के साथी, और कुछ दानदाता जुड़े। रचना ने ऑनलाइन वेबसाइट बनवाई।
धीरे-धीरे ‘बोलती किताबें’ एक आंदोलन बन गई।
नेहा को अब समझ आ गया था — पहचान सिर्फ पुरस्कारों से नहीं बनती, वह उस जिद से बनती है जिससे इंसान बार-बार टूटकर भी उठ खड़ा होता है। जहाँ लोग हार मान लेते हैं, वहाँ नेहा कहती है —
“कोई बड़ी बात नहीं।”
नेहा की दुनिया
(जहाँ उसका सपना आकार लेता है, समाज में उसका काम असर दिखाने लगता है, और उसके जीवन में कुछ व्यक्तिगत भावनाएँ भी लौटती हैं...)
‘बोलती किताबें’ की पहली दीवार पर लिखा था — "शब्दों में ताक़त होती है"
नेहा अब सिर्फ एक शिक्षक नहीं थी — वह अब एक मिशन लेकर चल रही थी।
‘बोलती किताबें’ संस्था ने गाँवों में शिक्षा को फिर से जीवित कर दिया था, लेकिन इस बार किताबें सिर्फ पढ़ने के लिए नहीं थीं — वे बोलती थीं, गाती थीं, हँसती थीं, सोचने पर मजबूर करती थीं।
बच्चों के साथ अब गांव की महिलाएँ भी जुड़ने लगी थीं।
शब्दों की ताक़त अब केवल शिक्षा तक सीमित नहीं रही — यह आत्म-विश्वास का पुल बन गई।
👉समाज की स्वीकार्यता
पहले जिन गाँवों में लोग कहते थे —
“लड़कियाँ बस शादी तक की पढ़ाई करें,”
अब वहीं की बेटियाँ कहती थीं —
“मैं भी ‘कहानी वाली दीदी’ बनना चाहती हूँ।”
नेहा अब मीडिया, शैक्षिक संगठनों और विश्वविद्यालयों की आँखों में थी।
कभी उसे सेमिनार में बुलाया जाता, कभी TED Talk के लिए आमंत्रण आता।
लेकिन उसने हर बार कहा —
“अगर कोई जानना चाहता है मैं क्या करती हूँ, तो चलिए मेरे गाँव — वहीं मेरा असली मंच है।”
👉दिल की दस्तक
एक दिन अविनाश ने उसे चाय पर बुलाया।
बैठक के दौरान उन्होंने कहा —
“नेहा, तुमने जो किया है, वो असाधारण है। कभी सोचा है कि अब अपनी ज़िंदगी के बारे में भी कुछ सोचो?”
नेहा चौंकी, फिर मुस्कुराई —
“अभी तो ज़िंदगी की एक-एक ईंट जोड़ रही हूँ।”
अविनाश थोड़ी देर चुप रहे। फिर बोले —
“अगर मैं कहूँ कि मैं इस ज़िंदगी में एक कोना चाहता हूँ — तुम्हारे साथ — तो?”
नेहा के हाथ काँप गए। चाय की प्याली थोड़ी थरथरा गई।
वह पहली बार अपने दिल की धड़कन को सुन रही थी।
👉माँ से बात
नेहा ने सब बताया। माँ कुछ देर चुप रहीं।
फिर कहा —
“उसने तेरे संघर्ष को देखा है, तेरे काम को समझा है। अगर उसका साथ तुझे और मज़बूत करता है... तो मैं भी साथ हूँ।”
नेहा को याद आया — जब वही माँ रिश्तेदारों के सवालों से घिरी थीं, जब वही माँ चाहती थीं कि नेहा किसी से शादी कर ले और "ब्याहता घर" जाए।
आज वही माँ कह रही थीं —
“ज़िंदगी का फैसला दुनिया से नहीं, दिल से करो।”
👉नेहा का जवाब
अविनाश को उसने एक पत्र लिखा —
प्रिय अविनाश,
तुम्हारी बात ने मेरे मन में एक कोमल दस्तक दी है।
आज जब मैं पीछे देखती हूँ, तो खुद को एक अकेली सड़क पर चलती लड़की की तरह पाती हूँ,
जो हर मोड़ पर खुद से कहती रही — “कोई बड़ी बात नहीं।”अब पहली बार लगता है कि शायद किसी के साथ चलने से रास्ता और सुंदर हो सकता है।
पर शर्त एक है — ये रास्ता कभी थमेगा नहीं।
अगर तुम इस चलती कहानी के सहयात्री बनना चाहते हो —
तो मेरा उत्तर है — हाँ।
👉संग-साथ की शुरुआत
नेहा और अविनाश ने विवाह नहीं किया किसी बड़ी रस्मों से।
छोटे से एक गाँव स्कूल में, बच्चों और किताबों के बीच —
जहाँ रंगोली की जगह कविताएँ थीं, और फेरे की जगह कहानी के सात पन्ने।
उनकी शादी एक समारोह नहीं, एक विचार बन गया —
कि जब दो लोग एक उद्देश्य के लिए जुड़ते हैं,
तो वह बंधन किसी नाम से नहीं, बल्कि कर्म से जुड़ता है।
‘बोलती किताबें’ अब एक आंदोलन है
अब तक संस्था 5 राज्यों के 150 गाँवों में फैल चुकी थी।
नेहा ने महिलाओं के लिए ‘शब्दशाला’ शुरू की —
जहाँ वे अपनी कहानियाँ लिखतीं, पढ़तीं और मंच से बोलतीं।
एक महिला ने मंच पर कहा —
“मैंने आज पहली बार माइक पकड़ा है, पर ये माइक नहीं — मेरी आवाज़ है।”
नेहा की आँखें भर आईं।
जब राष्ट्रपति भवन से बुलावा आया
एक दिन दिल्ली से एक पत्र आया —
“भारत सरकार आपको ‘नारीशक्ति पुरस्कार’ से सम्मानित करना चाहती है।”
पापा ने पत्र पढ़ते हुए आँखों पर चश्मा ठीक किया और कहा —
“बड़ी बात है नेहा... बहुत बड़ी बात।”
नेहा मुस्कुराई —
“हाँ पापा... लेकिन मेरी शुरुआत तो तब हुई थी, जब सबने कहा था —
‘कुछ नहीं होगा इससे।’ और मैंने बस यही कहा था — ‘कोई बड़ी बात नहीं।’”
👉अब नेहा की ज़िंदगी एक मिसाल बन चुकी है —
उस लड़की की जो एक छोटी खिड़की के पास बैठकर सपने देखती थी,
जो हर चोट, ताना, ठोकर और अपमान को जवाब देती थी —
“कोई बड़ी बात नहीं।”
आज वही वाक्य हजारों लड़कियों की हिम्मत बन चुका है।
नहीं — शुरुआत
(जहाँ कहानी पूर्णता की ओर बढ़ती है, लेकिन यह एक अंत नहीं, बल्कि एक नई सोच, नई दिशा और पूरे समाज के लिए एक नई उम्मीद की शुरुआत बन जाती है…)
👉राष्ट्रपति भवन की सुबह
दिल्ली की हवाओं में उस दिन एक और खास महक थी —
देश की सबसे ऊँची गद्दी से एक लड़की को सलाम किया जाना था,
जो कभी गुमनाम गलियों में चुपचाप अपना रास्ता बना रही थी।
नेहा पारंपरिक सादी साड़ी में मंच पर पहुँची। राष्ट्रपति ने जब पुरस्कार थमाया, पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा।
फ्लैश चमके, मीडिया ने सवाल किए, इंटरव्यू हुए, अख़बारों ने लिखा —
“एक लड़की जो कहती रही — कोई बड़ी बात नहीं,
आज पूरे देश के लिए बहुत बड़ी बात बन गई है।”
👉बदलते गाँव, बदलते चेहरे
अब ‘बोलती किताबें’ सिर्फ शिक्षा की नहीं, सामाजिक बदलाव की धारा बन चुकी थी।
जहाँ पहले स्कूलों में लड़कियाँ 8वीं के बाद छोड़ दी जाती थीं,
अब वहीं माताएँ खुद अपनी बेटियों का दाखिला कराने आती थीं —
कहते हुए, “हमारी बिटिया भी आपकी तरह बनना चाहती है।”
नेहा ऐसे सैकड़ों बच्चों की कहानियाँ लिख चुकी थी —
रजिया, जो अब गाँव की पहली महिला पत्रकार बनी।
गुड़िया, जो कभी घूंघट में थी, अब भाषण प्रतियोगिताओं में पुरस्कार जीतती थी।
और सूरज, जो कभी स्कूल से भाग जाता था, अब खुद बच्चों को पढ़ाता था।
👉अपने आप से एक अंतिम पत्र
एक रात, पुरस्कार समारोह के बाद, नेहा ने अपनी पुरानी डायरी का आख़िरी पन्ना खोला।
उसने खुद को एक पत्र लिखा —
प्रिय नेहा,
जब तूने पहली बार खुद से कहा था — "कोई बड़ी बात नहीं",
तब शायद तू झूठ बोल रही थी।लेकिन उस झूठ में इतना यकीन था,
कि वह तुझे सच्चाई तक ले आया।तूने हर चोट को शब्द बनाया,
हर आँसू को स्याही,
और हर ताने को ताक़त।आज जब लोग तुझसे प्रेरणा लेते हैं,
तू मुस्कुराना —
लेकिन कभी खुद को भूल मत जाना।क्योंकि वो जो खिड़की के पास बैठी लड़की थी,
जिसने खुद से पहली बार वादा किया था —
वही तेरी असली पहचान है।— नेहा
👉अविनाश का सवाल — अब क्या आगे?
एक शाम अविनाश ने पूछा —
“नेहा, अब जब तूने सब पा लिया है — नाम, सम्मान, पहचान — अब क्या करने का इरादा है?”
नेहा ने मुस्कुरा कर कहा —
“अब वो करना है जो सबसे कठिन होता है — चुपचाप चलते रहना।
बिना शोर किए, बिना थके,
हर उस लड़की तक पहुँचना जो सोचती है —
‘क्या मुझसे कुछ होगा?’”
एक स्कूल की उद्घाटन पट्टिका
लखनऊ के पास एक छोटे से गाँव में, एक नए स्कूल की आधारशिला रखी गई।
उस पर लिखा था —
📘
‘नेहा शर्मा ग्रामीण पुस्तकालय एवं बाल शिक्षा केंद्र’
“क्योंकि जब एक लड़की कहती है — 'कोई बड़ी बात नहीं’,
तब वह दरअसल दुनिया बदलने की तैयारी कर रही होती है।”📘
कुछ साल बाद…
एक दिन एक छोटी बच्ची नेहा के पास आई।
उसके हाथ में खुद की लिखी कविता थी। उसने संकोच से कहा —
“दीदी, मैं डरती हूँ सबके सामने पढ़ने से…”
नेहा ने उसका हाथ पकड़ा, माइक के सामने खड़ा किया और कहा —
“पढ़ो… और अगर कोई बोले कि तुम नहीं कर सकती —
तो बस मुस्कुराकर कह देना —
‘कोई बड़ी बात नहीं।’”
नेहा की कहानी अब उसकी नहीं रही
यह अब हर उस लड़की की कहानी बन गई थी —
जो कभी किसी कोने में बैठी थी,
जो कभी चुप थी,
जिसे कभी किसी ने कहा था — “तू नहीं कर पाएगी।”
अब वे सब लड़कियाँ जवाब देती थीं —
“कोई बड़ी बात नहीं।”
🎉 समाप्त — या शायद नहीं…
यह कहानी ख़त्म नहीं होती, क्योंकि इस जैसी हज़ारों कहानियाँ अभी लिखी जानी हैं।
नेहा सिर्फ एक किरदार नहीं, एक सोच है —
एक विश्वास कि:
✨ छोटे कदमों से बड़े रास्ते बनते हैं।
✨ हर "न" के बाद भी "हाँ" संभव है।
✨ और हर बार जब तुम थको, रोओ, गिरो —
तो खुद से कहो — 'कोई बड़ी बात नहीं।’