"अडिग विश्वास: तारा चंद अग्रवाल की अमिट छाप" ("Unshakeable faith: Tara Chand Aggarwal's indelible mark")
साल 2024 की एक सर्द सुबह थी। सूरज की हल्की किरणें गाँव की गलियों में उतर रही थीं, और बस्ती के बीचों-बीच एक साधारण-सा मकान पूरे गाँव का ध्यान खींचे खड़ा था। उसी मकान की चौखट पर एक वृद्ध पुरुष लकड़ी की कुर्सी पर बैठे थे — शांत, गंभीर और सौम्य। सफेद खादी का कुर्ता-पायजामा, सिर पर हल्की चांदी-सी बालों की चमक, और आँखों में अनुभव की गहराई। वही थे — तारा चंद अग्रवाल, जिनका नाम अब सिर्फ उनके गाँव बिरपुरा तक सीमित नहीं रहा, बल्कि देश भर में एक प्रेरणा-प्रस्तंभ के रूप में गूंज चुका था।
उनकी उम्र अब 71 वर्ष थी, लेकिन जोश, समर्पण और सेवा का उत्साह आज भी एक युवा से कम न था। वह रोज सुबह 5 बजे उठकर योग करते, गाँव के बच्चों को पढ़ाते, फिर दोपहर में किसी सरकारी स्कूल, अस्पताल या वृद्धाश्रम में समय देते। किसी के पास इलाज का खर्च न हो, किसी बच्ची की फीस भरनी हो, या किसी को अपने जीवन की दिशा तय करनी हो — सभी के लिए तारा चंद जी ही पहली पुकार थे।
कभी सरकारी नौकरी के आकर्षण को ठुकराकर उन्होंने जीवन भर सेवा को अपना धर्म बनाया। कभी अपनी जमीन गिरवी रख दी, तो कभी जेब में एक रुपया न होते हुए भी किसी ज़रूरतमंद की फीस भर दी। कई बार अपमान सहा, तो कई बार ठुकराया भी गया। लेकिन तारा चंद जी कभी रुके नहीं — न तब, जब गरीबी ने पैरों में बेड़ियाँ डालीं, न तब जब समाज ने उन्हें "पागल समाजसेवी" कहकर हँसी उड़ाई।
उनकी पहचान किसी पद या पुरस्कार से नहीं बनी — बल्कि लोगों के दिलों में उन्होंने जो जगह बनाई, वही उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है।
यह कहानी उस व्यक्ति की है,
जो मिट्टी से उठकर चट्टान बना,
जिसने काँटों पर चलकर भी फूल बोए,
और जिसने उम्र की सीमाओं को लांघकर
'अडिग विश्वास' से एक ऐसी छाप छोड़ी,
जो समय के पन्नों पर अमर है।
बचपन और प्रारंभिक जीवन – मिट्टी में छुपा हीरा
सन् 1953, एक तपती दोपहर। राजस्थान और उत्तर प्रदेश की सीमा पर बसा छोटा-सा गाँव बिरपुरा, जहाँ न बिजली थी, न पक्की सड़कें। वहीँ एक कच्चे मकान में, एक साधारण किसान परिवार में जन्मे थे तारा चंद अग्रवाल। सात भाई-बहनों में तीसरे स्थान पर आने वाले तारा चंद का जन्म किसी धूमधाम से नहीं हुआ था — लेकिन माँ की ममता और पिता के कठिन परिश्रम ने उन्हें बड़ा बनने का सपना जरूर दे दिया।
उनका परिवार खेती करता था। बारिश की बूंदों पर फसल निर्भर रहती, और जब बादल रूठ जाते, तो चूल्हा भी बुझा रह जाता। बचपन अभावों से भरा था — एक ही जोड़ी कपड़े, फटी हुई चप्पलें, और कई बार खाली पेट सोना पड़ता था। पर तारा चंद के भीतर एक अद्भुत जिज्ञासा थी।
गाँव का सरकारी स्कूल — जहाँ बच्चे अधिकतर सिर्फ नाम लिखवाने आते थे — वहाँ तारा चंद रोज समय से पहले पहुँचते। उनके पास न किताबें थीं, न कॉपी, लेकिन जो कुछ भी मास्टरजी पढ़ाते, उसे वो दिल में बसा लेते।
उनके पिता चाहते थे कि वह खेतों में हाथ बँटाएं। “पढ़-लिख कर क्या करेगा, बेटा? खेती ही करनी है!” – पिता की यह बात तारा चंद के दिल को चीर जाती, लेकिन वह अपने मन की आवाज सुनता रहा। रातें उनका असली समय थीं।
जब पूरा गाँव सो जाता, तो तारा चंद लालटेन की मद्धम रोशनी में पढ़ाई करता — किसी से माँगकर लाया हुआ पुराना किताबों का गट्ठर लेकर। कभी-कभी स्कूल में फेंके गए पन्ने भी वो समेट लेता और उन पर अभ्यास करता।
प्रेरणा की पहली किरण-
एक दिन गाँव के स्कूल में एक नए शिक्षक आये — रामकुमार मास्टरजी। उन्होंने तारा चंद की आँखों में अलग सी चमक देखी।
“बेटा, तू क्या बनना चाहता है?”
तारा चंद ने झिझकते हुए कहा – “बस पढ़ना चाहता हूँ, मास्टरजी।”
उस दिन से मास्टरजी ने उसे अलग से समय देना शुरू किया। उन्होंने उसे गाँधीजी की आत्मकथा दी — जो तारा चंद ने चार दिन में पढ़ डाली।
तारा चंद को पहली बार समझ आया कि पढ़ाई सिर्फ रोजगार का जरिया नहीं, बल्कि सोच बदलने की चाबी है।
संघर्ष का सिलसिला-
11 साल की उम्र में जब उनके बड़े भाई की तबीयत बिगड़ी, तो तारा चंद को स्कूल छोड़कर खेत में काम करना पड़ा। चार महीने तक वह स्कूल नहीं जा सके। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। स्कूल बंद होने के बाद भी वह मास्टरजी से पढ़ते रहे।
कई बार भूख के कारण चक्कर आ जाते। एक दिन स्कूल में बेहोश हो गए — शिक्षक और बच्चों ने चंदा इकट्ठा कर उन्हें खाना खिलाया। उस दिन तारा चंद की आँखों में आँसू थे — लेकिन यह आँसू हार के नहीं, संवेदना और हौसले के थे।
तारा चंद का बचपन भले ही अभावों से घिरा रहा हो, लेकिन उसकी नींव में संघर्ष, सेवा और सीखने की ललक गहराई से बैठ चुकी थी। यह वही नींव थी, जो आगे चलकर उन्हें समाज के सबसे मजबूत स्तंभों में से एक बनाएगी।
किशोरावस्था और बदलाव की शुरुआत — अंधेरे में उम्मीद की लौ
तारा चंद अब 13 वर्ष के हो चुके थे।
गाँव में वह उम्र होती है जब लड़के खेत में हल चलाने लगते हैं, और लड़कियाँ रोटी बेलना सीख जाती हैं। लेकिन तारा चंद की सोच उस ढांचे से अलग हो चुकी थी — वह सवाल पूछते थे, हर चीज़ की वजह जानना चाहते थे, और सबसे बढ़कर, कुछ नया सीखने की तड़प उनके भीतर जल रही थी।
पहली नौकरी — चाय की दुकान से आत्मनिर्भरता की ओर
उनके पिता की तबियत अब ठीक नहीं रहती थी। घर का खर्चा चलाना मुश्किल हो गया। स्कूल की फीस, किताबें, और माँ की दवाई — इन सबके लिए पैसों की ज़रूरत थी। तब तारा चंद ने गाँव की चौपाल के पास एक चाय की दुकान पर काम करना शुरू किया।
रोज सुबह 5 बजे उठकर वह चाय बनाते, बर्तन मांजते, ग्राहकों को चाय परोसते और फिर जल्दी से स्कूल भागते।
दिन भर मेहनत के बाद उन्हें महीने के 11 रुपये मिलते — जिनमें से 5 रुपये घर पर देते और बाकी पैसों से किताबें और कॉपियाँ खरीदते।
स्वाध्याय — रातों की मशाल
शाम को जब बाकी बच्चे खेलते, तारा चंद अपने छोटे से कमरे में बैठकर पढ़ाई करते।
रात को थकावट से शरीर टूट जाता, लेकिन मन कहता – “एक दिन यह सब बदल जाएगा।”
उन्हें किसी ने बताया कि पास के शहर में एक सार्वजनिक पुस्तकालय है। वह हर रविवार 12 किलोमीटर साइकिल चलाकर वहाँ जाते और किताबें उधार लेते। किताबों में उन्हें एक नई दुनिया मिलती — गांधी, विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस, और अब्राहम लिंकन उनके मानसिक गुरू बन गए।
गुरु की छाया — मार्गदर्शन की रौशनी
इसी दौरान उनकी ज़िंदगी में फिर एक निर्णायक मोड़ आया — गाँव के स्कूल में आए नए प्रधानाचार्य शिवदयाल मिश्र।
मिश्र जी ने तारा चंद की कक्षा में पढ़ने की शैली देखी और पूछा,
“बेटा, तुम्हारा लक्ष्य क्या है?”
तारा चंद ने जवाब दिया — “मैं चाहता हूँ कि मेरे जैसे बच्चों को पढ़ने के लिए गरीबी न रोक सके।”
मिश्र जी ने उन्हें एक पुराना रेडियो भेंट में दिया — जिससे वह समाचार और भाषण सुनते थे। रेडियो पर सुने एक वाक्य ने उनका जीवन बदल दिया:
“एक शिक्षित व्यक्ति सिर्फ अपना नहीं, समाज का भविष्य बदलता है।”
पहला लेख और पब्लिक स्पीच
14 साल की उम्र में तारा चंद ने गाँव की वार्षिक सभा में पहली बार एक छोटा-सा भाषण दिया — विषय था: "शिक्षा का दीपक हर घर तक पहुँचे"।
लोग हैरान थे — एक किसान का बेटा ऐसी बात कर रहा था, जैसे कोई नेता बोल रहा हो।
इसके बाद उन्होंने गाँव की दीवार पत्रिका में पहला लेख लिखा – “कब तक जागेगा गाँव?”
वह लेख गाँव के स्कूल के बाहर लगाया गया, और बच्चों ने पहली बार देखा कि उनके बीच का एक लड़का इतना सोचता और लिखता है।
एक बीज, जो पेड़ बनने को तैयार था
अब तारा चंद के भीतर कुछ और ही आकार ले रहा था — सिर्फ खुद की सफलता नहीं, बल्कि सामूहिक चेतना और बदलाव की आकांक्षा।
उन्होंने अपनी कमाई का एक हिस्सा बचाकर गाँव के बच्चों के लिए “सांझी पाठशाला” की शुरुआत की — जहाँ वह शाम को छोटे बच्चों को पढ़ाते, उन्हें कहानियाँ सुनाते, और सपने दिखाते।
युवावस्था – संघर्ष और निर्माण
“खुद को जलाकर जो औरों को रोशनी दे, वही असली दीपक है।”
तारा चंद अब 17 वर्ष के हो चुके थे। किशोरावस्था की जिज्ञासु आँखों ने अब संकल्प की तेज़ी और आत्मनिर्भरता की गहराई पकड़ ली थी। पर ज़िंदगी की असल परीक्षा अभी शुरू होनी थी।
कॉलेज में पहला कदम – सपनों की देहरी
गाँव से 40 किलोमीटर दूर स्थित एक छोटे कस्बे के सरकारी कॉलेज में तारा चंद ने बी.ए. में दाखिला लिया। उनके पास न रहने का ठिकाना था, न किताबें, और न ही कॉलेज की फीस भरने की पूरी व्यवस्था।
उन्होंने कस्बे में एक मिठाई की दुकान पर पार्ट-टाइम काम करना शुरू किया — सुबह दुकान पर झाड़ू-पोंछा, दिन में कॉलेज, और शाम को बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना।
कॉलेज में वे उम्र से कहीं ज़्यादा गंभीर, विनम्र और गहन विचारों वाले छात्र थे। उनके सहपाठी उन्हें "गाँव का गांधी" कहने लगे थे — क्योंकि वे खादी पहनते, सरल भाषा बोलते और हर बहस में समाज की बात करते।
आंदोलनों की ओर पहला कदम
कॉलेज के दूसरे वर्ष में उन्होंने एक ऐसा दृश्य देखा, जिसने उनका जीवन बदल दिया — एक लड़की को कॉलेज से बाहर इसलिए निकाल दिया गया क्योंकि उसके पास फीस भरने के पैसे नहीं थे।
तारा चंद ने कॉलेज प्रशासन के ख़िलाफ़ एक शांतिपूर्ण प्रदर्शन का नेतृत्व किया।
उन्होंने कहा:
"शिक्षा अधिकार नहीं बनेगी, तो समाज अधूरा रहेगा।"
उनके नेतृत्व में 200 से ज़्यादा छात्रों ने प्रदर्शन किया — अंततः प्रशासन को नियमों में बदलाव करना पड़ा, और आर्थिक रूप से कमज़ोर विद्यार्थियों के लिए विशेष सहायता की व्यवस्था हुई।
यह तारा चंद के पहले सफल सामाजिक आंदोलन की शुरुआत थी।
NGO की नींव – 'प्रयास'
कॉलेज के अंतिम वर्ष में उन्होंने दोस्तों के साथ मिलकर एक छोटी सी संस्था बनाई —
"प्रयास – एक नई सुबह की ओर"
जिसका उद्देश्य था:
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गरीब बच्चों के लिए मुफ्त शिक्षा
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महिला सशक्तिकरण के लिए प्रशिक्षण
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गाँवों में स्वच्छता और स्वास्थ्य संबंधी जागरूकता
शुरुआत में यह सिर्फ चार लोगों की कोशिश थी, लेकिन जल्द ही इसमें गाँव और कस्बे के दर्जनों युवा जुड़ गए।
रविवार के दिन वे आसपास के गाँवों में जाते, बच्चों को पढ़ाते, दीवारों पर जागरूकता के नारे लिखते, और स्कूल छोड़ चुके छात्रों को फिर से पढ़ाई के लिए प्रेरित करते।
जीवन का सबसे बड़ा सवाल – नौकरी या सेवा?
कॉलेज के बाद तारा चंद ने राज्य प्रशासनिक सेवा (RAS) की परीक्षा पास कर ली। परिवार और समाज सबने बधाई दी — “अब तुम्हारा जीवन संवर गया बेटा!”
लेकिन तारा चंद की आंखों में शांति नहीं थी।
उन्हें एक बहुत अच्छी नौकरी मिल रही थी, लेकिन उस सेवा में वह "स्वतंत्र रूप से काम नहीं कर पाएंगे", जैसा कि उन्होंने कहा।
उनके गुरु शिवदयाल मिश्र ने पूछा —
“क्या तुम जानबूझकर गरीबी का रास्ता चुनोगे?”
तारा चंद ने जवाब दिया —
“अगर मैं सिर्फ अपनी तरक्की चाहता, तो उसी दिन रुक जाता जब पहली बार भूखा सोया था। लेकिन मेरा रास्ता केवल मेरा नहीं है — उस हर बच्चे का है, जो पढ़ना चाहता है और रुक जाता है।”
उन्होंने नौकरी ठुकरा दी — और पूरी तरह सामाजिक सेवा को अपना धर्म बना लिया।
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पारिवारिक जीवन – साझेदारी, संघर्ष और संतुलन
सच्चे जीवन साथी वे होते हैं, जो आपके स्वप्न को अपना मान लें।
तारा चंद अब 26 वर्ष के हो चुके थे। समाज में उनकी एक विशेष पहचान बनने लगी थी — एक शिक्षाविद्, एक जागरूक कार्यकर्ता और युवाओं के प्रेरणास्रोत। पर सामाजिक जीवन जितना विस्तृत होता गया, निजी जीवन की ज़रूरतें भी आकार लेने लगीं।
विवाह — एक सधी हुई शुरुआत
साल 1979 में, तारा चंद का विवाह हुआ सुनीता अग्रवाल से — एक शिक्षित, संयमी और दृढ़ विचारों वाली युवती से, जो खुद भी समाज सेवा में रुचि रखती थीं।
उनका रिश्ता किसी पारंपरिक विवाह से अलग था — यहाँ दो विचारधाराओं का मिलन हुआ था। सुनीता जी ने पहले दिन ही कहा:
“अगर आपका रास्ता सेवा का है, तो मैं उसका हिस्सा बनकर रहना चाहती हूँ, बोझ नहीं।”
साझेदारी की नई परिभाषा
शादी के बाद उन्होंने एक किराए का छोटा सा मकान लिया, जिसमें एक कमरा खुद के लिए, और दूसरा कमरा गरीब बच्चों की "रात्रि पाठशाला" के लिए आरक्षित था।
सुनीता जी न केवल घरेलू जिम्मेदारियाँ संभालतीं, बल्कि वह स्वयं बच्चों को पढ़ातीं, महिलाओं के समूहों में प्रशिक्षण देतीं और घर के सीमित साधनों से लोगों की मदद करने में तारा चंद का साथ निभातीं।
वह दोनों मिलकर समाज के लिए एक "आदर्श दंपत्ति" बन चुके थे।
बच्चों की परवरिश — संस्कारों की नींव पर
तारा चंद और सुनीता जी के तीन संतानें हुईं — दो बेटियाँ और एक बेटा।
उन्होंने बच्चों को भौतिक सुख नहीं, बल्कि मानवीय मूल्य और सेवा भाव की शिक्षा दी।
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स्कूल जाने से पहले बच्चों को अपने साथ गाँव के बुजुर्गों के पास ले जाते।
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खाने से पहले उन्हें सिखाया जाता कि "थाली में इतना ही परोसें जितना ज़रूरी हो" — ताकि अन्न की कद्र बनी रहे।
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जब कभी कोई ज़रूरतमंद दरवाज़े पर आता, बच्चे पहले खुद दौड़ते।
बेटियाँ भी उनके NGO में बालिकाओं को पढ़ाने लगीं, और बेटा ग्रामीण स्वास्थ्य जागरूकता के प्रोजेक्ट्स में सहभागी बना।
संयुक्त परिवार और जिम्मेदारियाँ
उनके माता-पिता, भाई-बहन, और रिश्तेदारों का एक बड़ा संयुक्त परिवार था। आर्थिक स्थिति सीमित थी, लेकिन तारा चंद ने कभी दूसरों को बोझ नहीं समझा।
एक बार उनका छोटा भाई दुर्घटना में घायल हो गया। इलाज के लिए पैसे नहीं थे — तारा चंद ने "प्रयास" संस्था के लिए जमा की गई एक बड़ी राशि उस इलाज में लगा दी।
जब साथियों ने पूछा, “ये पैसा तो NGO का था?”
तारा चंद ने जवाब दिया —
“कर्म का दान तभी पवित्र होता है जब उसमें दिल की ज़रूरत हो, सिर्फ योजना नहीं।”
संतुलन की कला
पारिवारिक जीवन और सामाजिक जीवन में सामंजस्य रखना आसान नहीं था।
बहुत बार ऐसा हुआ कि त्योहार के दिन भी तारा चंद किसी गाँव में सेवा कार्य में लगे रहे। पर कभी परिवार में कोई शिकायत नहीं हुई।
सुनीता जी हमेशा कहती थीं —
“हमारा परिवार तो समाज है — और जब तक वहाँ किसी के घर दीपक नहीं जले, हमारा त्योहार अधूरा है।”
सामाजिक सेवा और नेतृत्व – सेवा से संगठन तक
“जो खुद तक सीमित न रहे, वही सच्चा नागरिक बनता है।”
40 की उम्र तक तारा चंद अग्रवाल का जीवन समाज के विभिन्न तबकों में गहराई से जुड़ चुका था — शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला सशक्तिकरण, युवाओं के मार्गदर्शन और ग्रामीण विकास जैसे क्षेत्रों में उन्होंने सेवा को नेतृत्व का माध्यम बना दिया था।
‘प्रयास’ संस्था का विस्तार — गाँव से जिले तक
1980 के दशक में जब “प्रयास” संस्था की नींव पड़ी थी, तब वह सिर्फ एक पाठशाला और कुछ वालंटियर्स तक सीमित थी। लेकिन अगले 10 वर्षों में संस्था का रूपांतरण हुआ —
अब इसमें शामिल थे:
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12 गाँवों में शाम की कक्षाएँ
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मोबाइल पुस्तकालय वाचन यान
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महिला प्रशिक्षण केंद्र (सिलाई, कढ़ाई, स्वच्छता शिक्षा)
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बालिका शिक्षा प्रोत्साहन योजना (जहाँ स्कूल जाने वाली लड़कियों को छात्रवृत्ति दी जाती थी)
जनजागरण अभियानों का संचालन
तारा चंद ने कभी भाषण नहीं दिए, वो जन संवाद करते थे।
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उन्होंने पैदल यात्राएँ कीं — शिक्षा, स्वच्छता और स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर।
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गाँव-गाँव जाकर नुक्कड़ नाटक कराए, जिनके माध्यम से समाज को बाल विवाह, दहेज, शराबखोरी और जातीय भेदभाव के खिलाफ जागरूक किया गया।
उनकी सबसे प्रसिद्ध यात्रा रही —
"अशिक्षा से आज़ादी पदयात्रा" (1996) — 100 किलोमीटर की यह यात्रा उन्होंने 20 स्वयंसेवकों के साथ की, और 16 गाँवों में रुक कर शिक्षा के अधिकार की अलख जगाई।
सरकारी तंत्र से सहयोग और संघर्ष
उनके सामाजिक कार्य अब इतने प्रभावशाली हो चुके थे कि राज्य सरकार के कई विभागों ने “प्रयास” के साथ साझेदारी करनी शुरू कर दी।
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शिक्षा विभाग ने उनके मॉडल को “अनौपचारिक शिक्षा प्रणाली” में सम्मिलित किया
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स्वास्थ्य विभाग ने उनके मार्गदर्शन में मुफ्त स्वास्थ्य शिविर शुरू कराए
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कई बार उन्हें सामाजिक सलाहकार मंडलों में आमंत्रित किया गया
लेकिन यह राह आसान नहीं थी —
कुछ राजनैतिक लोगों को उनका लोकप्रियता और असर खटकने लगा।
एक बार उनके खिलाफ झूठे आरोप लगाकर जांच बैठाई गई।
लेकिन तारा चंद ने न तो मीडिया में सफाई दी, न आंदोलन किया —
बस बोले:
“अगर मेरा कर्म साफ है, तो समय गवाही देगा।”
और वही हुआ — दो महीनों में ही उन्हें क्लीन चिट मिल गई और संस्था को और अधिक मान्यता प्राप्त हुई।
युवाओं के लिए मार्गदर्शक
तारा चंद का मानना था:
“कोई भी आंदोलन स्थायी नहीं हो सकता जब तक युवा उसे न संभालें।”
उन्होंने गाँवों में ‘युवा जागृति मंडल’ बनाए।
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बेरोजगार युवाओं को आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रशिक्षण
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खेती, बागवानी, पशुपालन, और कुटीर उद्योगों पर कार्यशालाएँ
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कंप्यूटर साक्षरता केंद्र की स्थापना
उनके प्रयासों से दर्जनों युवाओं ने न केवल नौकरी पाई, बल्कि खुद स्वरोजगार शुरू किए।
जन विश्वास और नेतृत्व
कई बार लोगों ने उनसे पंचायत चुनाव लड़ने का अनुरोध किया, MLA बनने की बात भी उठी —
पर उनका उत्तर हमेशा वही था:
“मैं पद से नहीं, काम से बदलाव चाहता हूँ।”
उनका नेतृत्व प्रेरणा आधारित था, सत्ता आधारित नहीं।
वह कहते थे —
“जो समाज की सेवा करे, वही उसका नेता है — बिना किसी चुनाव के।”
पुरस्कार और पहचान — सम्मान से अधिक, सेवा की स्वीकृति
“सम्मान वही, जो कर्म का प्रतिफल हो — और पहचान वही, जो समाज की आँखों में झलके।”
तारा चंद अग्रवाल ने कभी पुरस्कार की चाह नहीं रखी, न मंचों पर तस्वीरें खिंचवाने की लालसा। पर जब कोई व्यक्ति जीवन भर अपने कर्म से समाज को संवारता है, तो सम्मान अपने आप उसके चरणों में आ बैठता है।
पहला सार्वजनिक सम्मान — गाँव की गोद से
साल 1992 की बात है। गाँव बिरपुरा के स्कूल में “ग्राम शिक्षा महोत्सव” का आयोजन था। बच्चों, अभिभावकों और स्थानीय शिक्षकों की उपस्थिति में तारा चंद को पहली बार औपचारिक रूप से "ग्राम गौरव सम्मान" प्रदान किया गया।
कोई बड़ी राशि या पदक नहीं — बस एक तांबे की थाली, एक माला और गाँव की बच्चियों द्वारा गाए गए गीत ने उन्हें भावविभोर कर दिया।
उन्होंने उसी दिन कहा:
“मुझे पहली बार लगा कि मेरा रास्ता सही है।”
राज्यस्तरीय पुरस्कार — सेवा का विस्तार, मान्यता का आरंभ
1998 में राजस्थान सरकार द्वारा उन्हें मिला:
"राज्य समाजसेवी सम्मान" — विशेष रूप से ग्रामीण शिक्षा और महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में उनके नवाचारों के लिए।
इस समारोह में पहली बार उन्होंने मंच से कोई भाषण दिया:
“यह सम्मान मेरा नहीं, उन बच्चों का है जिन्होंने अंधेरे में पढ़ना सीखा।”
इसके बाद एक के बाद एक कई पुरस्कार आए:
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“ग्राम विकास श्री” (2002) — सतत विकास कार्यों के लिए
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“निर्भया स्त्री रक्षक पदक” (2005) — बालिका शिक्षा अभियान के लिए
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“जननेता बिना पद” सम्मान (2009) — यह एक नागरिक मंच द्वारा दिया गया सम्मान था, जिसका नाम ही उनके जैसे कार्यकर्ताओं के लिए रखा गया था
राष्ट्रीय पहचान — मीडिया और मंचों पर चर्चा
2012 में एक प्रमुख समाचार चैनल ने तारा चंद अग्रवाल पर एक डॉक्यूमेंट्री बनाई:
"एक साधारण आदमी की असाधारण यात्रा"
यह फिल्म राष्ट्रीय टेलीविजन पर प्रसारित हुई, और उन्हें देश भर से समर्थन व सराहना मिली।
उसी वर्ष उन्हें आमंत्रित किया गया —
TEDx जयपुर
जहाँ उन्होंने “नेतृत्व बिना सत्ता” पर 15 मिनट का भाषण दिया।
वह वीडियो बाद में लाखों बार देखा गया, खासकर युवाओं द्वारा।
उन्होंने कहा:
“हमारी पीढ़ियाँ महापुरुष बनने का सपना नहीं देखें — बल्कि अच्छे इंसान बनने की हिम्मत करें। बाकी सब स्वतः आएगा।”
नम्रता — पहचान की गहराई
एक बार एक पत्रकार ने पूछा —
“तारा चंद जी, इतने सम्मान पाकर कैसा लगता है?”
उन्होंने मुस्कुराकर उत्तर दिया:
“जैसे किसी किसान को देखकर कहा जाए कि फसल बहुत अच्छी हुई है — पर वह जानता है कि असली मेहनत बीज, मिट्टी और पानी की थी। मैं सिर्फ एक माध्यम हूँ।”
प्रयास संस्था की पहचान
"प्रयास" अब एक पंजीकृत और मान्यता प्राप्त सामाजिक संस्था बन चुकी थी।
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NITI Aayog की ग्राम-उन्नयन रिपोर्ट में उसका नाम दर्ज हुआ
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अंतर्राष्ट्रीय सामाजिक संगठनों से सहयोग प्रस्ताव आने लगे
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कई युवा कार्यकर्ता, NGO लीडर्स और IAS प्रशिक्षणार्थी संस्था का दौरा करने लगे
पर संस्था का मुख्य बोर्ड आज भी तारा चंद के हाथ की लिखी पंक्ति से शुरू होता था:
"हमारा काम पुरस्कार नहीं, परिवर्तन है।"
आत्म-संघर्ष और आध्यात्मिक यात्रा — भीतर की लौ से उजाला
“बाहरी दुनिया को बदलने से पहले, भीतर की दुनिया को समझना पड़ता है।”
तारा चंद अग्रवाल का जीवन जहाँ एक ओर सेवा, नेतृत्व और जनहित की मिसाल बन चुका था, वहीं दूसरी ओर उनका मन कई बार अपने भीतर गहरे उतरने की कोशिश करता था। जीवन की कठिनाइयाँ, आत्म-संशय, और अपनों से मिले आघातों ने उन्हें आध्यात्म की ओर मोड़ दिया — लेकिन यह पलायन नहीं था, बल्कि एक नया मार्गदर्शन।
पहला आघात — एक सन्नाटा भीतर का
2007 में अचानक उनकी पत्नी सुनीता जी को गंभीर बीमारी हो गई।
उन्हें कैंसर हुआ था।
चार महीने अस्पतालों, इलाज और आशाओं के बीच तारा चंद ने पहली बार खुद को बेबस महसूस किया।
उन्होंने कहा था:
“मैंने सैकड़ों को सहारा दिया, लेकिन जब अपनों को टूटते देखा, तो अपनी जड़ों से हिल गया।”
सुनीता जी की मृत्यु ने उनके जीवन में एक खालीपन, एक चुप्पी छोड़ दी।
पहली बार "प्रयास" के कार्यालय के दरवाज़े कई दिनों तक बंद रहे।
तारा चंद ने न किसी से बात की, न सार्वजनिक रूप से कुछ कहा।
उन्होंने खुद को आत्म-संघर्ष की एक लंबी यात्रा में झोंक दिया।
आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत — भीतर की ओर यात्रा
उन्होंने हृदय से पूछा — अब क्या शेष है?
उत्तर मिला: "अब स्वयं को जानना बाकी है।"
उसी वर्ष वह ऋषिकेश, फिर हरिद्वार और बाद में पावन नर्मदा किनारे कुछ महीनों तक रहे।
वहाँ उन्होंने:
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योग और ध्यान में समय बिताया
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श्रीमद्भगवद्गीता और विवेकानंद साहित्य का गहन अध्ययन किया
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मौन व्रत रखा – सप्ताह में एक दिन न बोलने का नियम
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सुबह 4 बजे उठकर आत्मचिंतन और साधना का अभ्यास शुरू किया
यह कोई सन्यास नहीं था — यह संवाद से पहले मौन की तैयारी थी।
दूसरा मोड़ — क्षमा और स्वीकार का भाव
उन्होंने अपने भीतर वर्षों से छुपी कुछ पीड़ाओं का सामना किया:
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बचपन में पिता की कठोरता
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कुछ करीबियों द्वारा विश्वासघात
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अपने बच्चों से समय न दे पाने का अपराधबोध
इन सभी को उन्होंने कागज़ पर लिखा, जलाया और कहा:
“माफ़ करना उतना ज़रूरी है, जितना सेवा करना। क्योंकि जब तक भीतर क्लेश रहेगा, बाहर करुणा अधूरी है।”
नई दृष्टि — सेवा में संतुलन और मौन की शक्ति
प्रयास संस्था के संचालन में उन्होंने अब एक बदलाव किया:
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कार्यकर्ताओं को अब हर सप्ताह “मौन संवाद सत्र” में भाग लेना होता
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संस्था में अब “मूल्य आधारित सेवा” की अवधारणा विकसित हुई — जिसमें सेवा केवल बाहरी नहीं, बल्कि सहृदयता, संयम और समर्पण पर आधारित होती
उन्होंने कहा:
“जो भीतर से खाली होता है, वह बाहर शोर करता है; जो भीतर से पूर्ण होता है, वह मौन से बोलता है।”
लोगों के लिए एक 'संत' की छवि
अब तारा चंद न सिर्फ समाजसेवी, बल्कि मार्गदर्शक, शिक्षक और साधक के रूप में देखे जाने लगे।
गाँव के लोग उन्हें “बाबा जी” कहने लगे — लेकिन वह मुस्कराकर कहते:
“बाबा वही, जो बच्चों सा निर्मल हो।”
उन्होंने अपने जीवन का दर्शन तीन शब्दों में समेटा:
"कर्म, क्षमा, करुणा"
उत्तरार्ध जीवन की प्रेरणा — उम्र नहीं, ऊर्जा बोलती है
“जिस दिन उद्देश्य थम जाए, वही दिन असली बुढ़ापा है।”
71 वर्ष की उम्र में जहाँ अधिकतर लोग आराम, संयास या केवल यादों में जीने का जीवन चुनते हैं, वहीं तारा चंद अग्रवाल ने जीवन का सर्वाधिक प्रभावशाली अध्याय अब शुरू किया।
यह वह समय था जब उनका अनुभव परिपक्व था, नजर गहरी हो चुकी थी, और आत्मबल शिखर पर। लेकिन उनकी ऊर्जा देखकर कोई नहीं कह सकता था कि यह व्यक्ति सत्तर पार कर चुका है।
हर सुबह एक नई शुरुआत
सुबह 4:30 बजे जागना, स्नान के बाद योग व ध्यान, फिर हाथ में चाय का कप और एक डायरी — जिसमें वे रोज़ कुछ नया लिखते:
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एक विचार
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एक अनुभव
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एक सीख
उनकी डायरी का पहला पन्ना हमेशा कहता था:
“मैं आज भी कुछ नया सीख सकता हूँ।”
तकनीक और तारा चंद — नई पीढ़ी के साथ नई भाषा
2018 में उनके पोते ने उन्हें एक स्मार्टफोन गिफ्ट किया।
शुरुआत में वह मुस्कराए — “इस डब्बे से मुझे क्या लेना?”
लेकिन फिर उन्होंने कहा:
“अगर बच्चे इसमें हैं, तो मैं यहीं मिलूँगा।”
उन्होंने सीखा —
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वीडियो कॉल करना
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Zoom पर वेबिनार लेना
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WhatsApp ग्रुप्स पर प्रेरणात्मक ऑडियो भेजना
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YouTube चैनल बनाना — जिसका नाम रखा गया: "बोलता है बुज़ुर्ग"
उनके वीडियो — “सादा जीवन, उच्च विचार”, “कर्म और करुणा”, “बूढ़ा नहीं हुआ हूँ, सिर्फ अनुभवी हूँ” — लाखों लोगों तक पहुँचे।
‘तारा चंद प्रेरणा केंद्र’ की स्थापना
2021 में उन्होंने अपने जीवन की सबसे महत्वाकांक्षी पहल शुरू की —
"तारा चंद प्रेरणा केंद्र"
यह कोई सामान्य संस्था नहीं थी। यह एक जीवित मूल्य-शाला थी, जहाँ:
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हर आयु वर्ग के लोग संवाद करना सीखते
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जीवन कौशल (Life Skills), आत्मनिर्भरता, सेवा और नेतृत्व के प्रैक्टिकल सत्र होते
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युवाओं को रोजगार नहीं, दृष्टिकोण मिलता
उन्होंने इसे किसी NGO या CSR फंडिंग से नहीं चलाया —
बल्कि छोटे-छोटे दान, स्वयंसेवकों की सेवा और गाँव वालों की मदद से इसे जिंदा रखा।
उम्र नहीं, उद्देश्य बोलता है
कई बार लोग पूछते —
“अब तो आराम कीजिए, तारा चंद जी।”
वह हँसते और जवाब देते:
“आराम ज़रूरी है, पर अधूरा काम पहले।”
उनकी दिनचर्या आज भी युवाओं से अधिक थी —
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सुबह योग
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दिन में प्रेरणा केंद्र में सत्र
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दोपहर गाँव में दौरे
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रात को डायरी लेखन और ऑनलाइन बातचीत
उन्होंने ‘रिटायरमेंट’ शब्द को हमेशा नकारा।
“जो उद्देश्य से जुड़ा हो, वह कभी रिटायर नहीं होता।”
युवा पीढ़ी से सीधा संवाद
अब वे ‘उपदेशक’ नहीं, ‘साथी’ बन चुके थे।
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गाँव के बच्चों के साथ पेड़ लगाते
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स्कूलों में जाकर एक-एक बच्चे से व्यक्तिगत बात करते
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नशा, आत्महत्या, सोशल मीडिया की आभासी दुनिया जैसे विषयों पर खुलकर बात करते
उनकी यह बात सबसे प्रसिद्ध हुई:
“कोई कितना स्मार्टफोन चलाता है, यह नहीं पूछो — पूछो वह खुद को कितना जानता है।”
"कुछ लोग नाम छोड़ जाते हैं, कुछ काम... पर विरले ही होते हैं वो, जो एक विचार बनकर ज़माने की सोच बदल देते हैं।"
तारा चंद अग्रवाल अब 71 की उम्र पार कर चुके हैं। शरीर ने थकावट स्वीकार करना शुरू किया है, लेकिन उनका मन आज भी वैसे ही सजग और समर्पित है, जैसे किशोर अवस्था में हुआ करता था।
उनके जीवन की यात्रा अब एक जीवंत विरासत बन चुकी है — न सिर्फ गाँव बिरपुरा में, न सिर्फ राजस्थान या भारत में, बल्कि उन हर दिलों में, जिन्होंने कभी निराशा के अंधेरे में उनका दिया हुआ कोई शब्द, कोई मार्गदर्शन, कोई हाथ थाम लिया था।
विरासत — ईंट और दीवार नहीं, मूल्य और दृष्टि
तारा चंद ने न कोई महल बनाया, न बड़ी संपत्ति जोड़ी, न कोई संस्थागत ब्रांड —
पर उन्होंने बनाया:
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एक सोच: “सेवा सबसे बड़ा धर्म है।”
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एक सिद्धांत: “उद्देश्य से जुड़ो, पद से नहीं।”
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एक दृष्टि: “युवाओं को राह दो, जवाब नहीं।”
उनके द्वारा शुरू की गई ‘प्रयास’ संस्था आज 50 से अधिक गाँवों में काम कर रही है।
‘तारा चंद प्रेरणा केंद्र’ अब एक ट्रेनिंग हब बन चुका है, जहाँ से हर साल सैकड़ों युवा जीवन कौशल, मूल्य शिक्षा और समाज सेवा की ट्रेनिंग लेकर निकलते हैं।
यादों में जीवित — केवल चित्रों में नहीं, चरित्रों में
गाँव के बच्चे जब किसी को ईमानदारी से काम करता देखते हैं, तो कहते हैं:
“वो तारा चंद जैसे हैं।”
युवाओं के लिए, वह आज भी प्रेरणा हैं:
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किसी ने समाजसेवी बनने का रास्ता अपनाया
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किसी ने एक शिक्षक की भूमिका चुनी
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तो किसी ने अपनी कॉर्पोरेट नौकरी को समाज सेवा से जोड़ दिया
उनका नाम अब सिर्फ व्यक्ति नहीं, एक मूल्य बन चुका है।
अंतिम वर्षों में एक शांति, एक संतुलन
तारा चंद अब कम बोलते हैं, लेकिन जब बोलते हैं तो सन्नाटा बोलने लगता है।
वे अक्सर कहते हैं:
“अब शब्द नहीं, मौन सिखाता हूँ।”
उनकी लिखी डायरियों का एक संकलन हाल ही में प्रकाशित हुआ है —
“सादा जीवन, सच्चा संवाद” — जिसमें उनके विचार, अनुभव और संवाद दर्ज हैं।
“अगर जीवन को सार्थक बनाना है, तो वहाँ दीया जलाओ जहाँ अब तक किसी ने हाथ नहीं बढ़ाया।”